भाषा-साहित्य

बच्चों के प्रति एक हिंसा

गांधी जयन्ती के अवसर पर जब सारा देश सफाई आंदोलन के अभियान पर झाड़ू उठाए सड़कों पर उतर आया था, मैं अपने एक रिश्तेदार से मिलने मेरठ के एक गाँव में गया। महमानदारी और आवभगत हुई। बच्चे और उनके माता पिता मिलकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बड़े शोक से अपने एक छोटे बच्चे का परिचय मुझसे कराया, जो बड़ा निपुण था। उन्होंने बताया कि यह बच्चा तीसरी कक्षा में एक पब्लिक स्कूल में पढ़ता है। मोटी-मोटी किताबों के साथ बच्चा बड़ी उमंग से आया। मैंने कहा, “बेटा, जरा इसमें से कुछ पढ़कर सुनाओ।“ वह अंग्रेजी की एक किताब से बड़े शोक से कुछ पढ़ने लगा। में अंग्रेजी शब्दों के उसके उच्चारण सुनकर भौंचक्का रह गया। मुझ को तरस उस पर नहीं उसकी शिक्षिका पर और उस शिक्षा पद्वति पर आया, जो इन मासूमों पर अत्याचार ही नहीं, नौनिहालों के जीवन से खिलवाड़ कर रही है। यह सरासर एक हिंसा है। हम इन मासूम बच्चों पर जो अभी अपनी मातृ भाषा में ठीक से बोलना भी नहीं सीख पाए थे, एक ऐसी भाषा को थोप रहे हैं, जिसका उच्चारण अन्य देशवासी तो क्या स्वयं उसके नागरिक भी शायद ठीक से नहीं कर पाते।“ यह हिंसा नहीं तो क्या है ? क्या गांधी जी के प्रति हमारी यही श्रृद्वांजली है कि हम अपने नौनिहालों को, अपने मासूमों को, शिक्षा के नाम पर यातनाएं दें। उनके स्वाभाविक मानसिक विकास को अवरूद्व करें और पानी की तरह पैसा बहाकर भी गरीब माँ-बाप उन्हें शिक्षा जगत में बौनों की कतार में खड़ा कर दें। स्वतंत्र भारत और विश्व के सबसे बड़े गणराज्य में इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? क्या इसके लिए बापू जिम्मेदार हैं, “या स्वयं हम हैं ?” गांधी जी ने बहुत पहले ही आगाह किया था कि बच्चों के विकास के लिए मातृभाषा की शिक्षा उतनी ही आवश्यक है, जितना उसके लिए माँ का दूध है ! जरा ठंडे दिल से सोचिए कि क्या हम अपनी इस शिक्षा पद्वति से बच्चों के प्रति अन्याय नहीं कर रहे है ? क्या उनके प्रति यह हिंसा नहीं है ?

पहली कक्षा ही नहीं नर्सरी और प्री-नर्सरी स्तर से ही उन पर एक ऐसी भाषा थोप कर हम उनके साथ अन्याय नहीं कर रहे है क्या ? जिससे उनका मानसिक विकास अवरूद्व होता है। बच्चे पढ़ने से जी चुराते हैं। बच्चा अपने वातावरण की जिस भाषा में पलता है, जिस भाषा में अपने माता-पिता और साथियों से बात करता है उसी में हंसता बोलता है, फिर उसको उसी भाषा में शिक्षा क्यों नहीं दी जाती ? क्या उसके कच्चे मन पर विदेषी भाषा का बोझ डालना उसके साथ अन्याय नहीं है? कौन बताए ? भारतीय स्कूलों की एक बड़ी शिकायत यह है कि बड़ी संख्या में बच्चे सैकंड्री स्कूल तक पहुंचते-पहुंचते बीच में शिक्षा छोड़ देते हैं। इसके कारण कुछ भी क्या न हों, किंतु एक बड़ा कारण, उन पर एक विदेशी भाषा का बोझ भी है, जिससे वे जी चुराते हैं। उनकी पढ़ाई में अरूचि हो जाती है। आश्चर्य है कि शिक्षा शास्त्री इस तथ्य पर ध्यान क्यों नहीं देते ? सरकार क्यों असहाय बनी हुई है ?

आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है। सभी भाषाएं इससे लाभ उठा रही हैं। लोकप्रियता के क्षेत्र में अब उन्हीं भाषाओं का वर्चस्व रहेगा, जिसमें लेखन और ध्वनि का सामंजस्य होगा, अर्थात् उच्चारण और लेखन में समानता होगी। इसके संकेत हमें भाषाविदों और वैज्ञानिकों ने पहले ही दे दिए हैं।

— डॉ. परमानंद पांचाल