गीतिका
शायद कोई राज़ छिपाया लगता है
चेहरे के ऊपर इक चेहरा लगता है
प्यार वफ़ा कसमें रस्में वह क्या जानें
जिसको जीवन खेल तमाशा लगता है
वक्त के हाथों की हम सब हैं कठपुतली
आज यहाँ कल कहीं ठिकाना लगता है
रोटी की कीमत उनसे जाकर पूछो
मुश्किल जिनको एक निवाला लगता है
जीते है हरदम जो अपनी शर्तों पर
उनका हर अंदाज़ निराला लगता है
करते हैं जो बात सियासी ही अक्सर
घिसा पिटा सा उनका जुमला लगता है
खोई हो मुस्कान भले ही होंठो की
ढूंढो तो बस एक बहाना लगता है
— रमा प्रवीर वर्मा