लघुकथा

लघुकथा

सखी रे, मोरा नैहर छूटा जाए

फूल लोढ़ने की डलिया हर सुबह, बसंती के हाथों में उछल- ककूदकर अपने आप ही आ जाती है मानों उसके नित्य के दैनिक कर्म में यह एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर समाहित हो गई है। उसकी दादी की पूजा में ताजे फूलों का भगवान के शर पर चढ़ना पूरे परिवार के लिए एक दायित्व से भरा हुआ जरूरी काम है। जिसका भार बसंती के ऊपर उसके बचपनी गतिविधियों के नाते अपने आप ही सवार हो गया है। सोहबत का असर अमूमन सबको आकर्षित करता है और बहुत जल्दी गैर को भी अपना बना लेता है। उसके साथ भी कुछ वैसा ही हुआ, बसंती की सखियां जब बागों में जाती हैं तो वह भी उनके साथ- साथ, कभी-कभार बगिया की छटा को अपलक निहारने के लिए चली जाती है। बचपन का भोला मन सदैव कुछ नया करने के फिराक से ओतप्रोत होता है। अचानक एक दिन उसने बहुत सारे फूल लोढ़कर अपने दुपट्टे में भर लिया और इस खुशी को जतलाने के लिए उतावली होकर, अपनी दादी को इस खुशी का सौगात अरपन करने की चाह लिए अपने घर आयी। यूं तो उस दिन दादी का पूजा अपने नियत समय पर फूल- पत्तों का चढ़ावा चढ़ाकर पूरा हो गया था। पूजा के बाद दादी की गरम चाय, नमकीन के साथ चुस्की ले रही थी कि इतने सुंदर फूल देखकर दादी को उसपर बहुत गुस्सा आ गया। वह खींझकर बसंती को डाँटने लगी कि नाहक ही तुमने आज इतने सारे फूलों को तोड़ लिया, अगर यही फूल पूजा के पहले लाती तो भगवान को चढ़ाने के काम में आता और पूजा अच्छे तरीके से पूरी होती। उम्मीद पर पानी फिर गया और बसंती ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, अपने काम की सराहना न पाकर हताश हो गई,…….हाय रे फूल???????। उस दिन उसने न तो खाना खाया न ही अपनी दादी से कुछ बात कर सकी,….. मुरझा गई। बसंती की माँ को उसका उतरा हुआ चेहरा न देखा गया तो उसने बसंती को अपनी गोंद में लेकर प्यार से मनुहार कराते हुए खाना खिलाया और समझाया कि तुमने कोई गलती नहीं किया है। कल फिर सखियों के संग बाग में चली जाना और जल्दी-जल्दी फूल लोढ़कर दादी के पूजा के पहले ही लाकर उन्हें धोकर डलिये में सजाकर रख देना, इससे तुम्हें दादी का प्यार भी मिलेगा और भगवान का आशीर्वाद भी। बसंती खुश हो गई और पूरी रात सुबह होने का इंतजार करती रही। बड़े सबेरे डलिया लेकर बाग में आनन-फानन पहुँच गई और सारे फूल तोड़कर अपने घर आ गई। उन फूलों को सजाकर डलिया दादी के सामने लायी तो दादी ने उसको अपने आगोश में भरकर बहुत सारे आशीष से उसका भंडार भर दिया। जिसका फल उसे तुरंत मिला और बसंती को बेरोक-टोक बाग में जाने और फूल लोढ़ने की आज्ञा मिल गई।

उधर अन्य सखियों को फूल न मिला तो उसके लिए बसंती को उन प्यारी सखियों से बहुत शिकायत मिली….. मसलन, तुम जल्दी सारे फूल तोड़ लोगी तो हम अपनी पूजा के लिए कहाँ से फूल लाएँगी। अब कल से तुम हमारे साथ में ही चलना और सब लोग बराबर-बराबर फूल अपने घर ले जाएंगे ताकि सबके घर की पूजा सम्पन्न हो सके। यह बात बसंती के समझ में तो आ गई पर वह सबसे छोटी होने के बावजूद भी बाग में सबसे पहले पहुँच जाती थी और सारे फूल लोढ़कर इकट्ठा कर लेती थी। जब सभी सहेलियां आ जाती थी तो उन फूलों का बंटवारा होता और सब अठखेलियाँ करती हुई अपने घर आ जाती हैं। हर घर में ताजे फूलों के साथ पूजा होने लगी और हर लोग बसंती जैसी कली को अपना आशीष देने लगे। दादी की प्यारी बेटी बनकर बसंती के अंदर पूजा-पाठ और संस्कार का खजाना भरता चला गया। गरमी, ठंडक और बरसात कुछ भी हो, वह बाग में जरूर जाती। सखियों के साथ हंसी-मस्करी और सुबह की सैर से वह और भी सुंदर हो गई, जिससे वह भौंरों की नजर में चढ़ने लगी। उसकी दादी और माँ को इसका अहसास था कि अब बसंती को बाग में अकेले भेजना उचित नहीं है। एक दिन दादी ने कहा बेटा अब तुम बाग में अकेले न जाया करो, अब तुम बड़ी हो गई हो, अब फूल लाने का काम तुम्हारा अनुज भाई पृतेश करेगा। इतना सुनना था कि बसंती का चेहरा मलिन हो गया और उसने दादी से कहा, दादी हम बड़े हो गए तो क्या हुआ गाँव की सारी लड़कियां बाग में साथ होती हैं फिर डर किस बात की। लड़कियों का बड़ा होना अभिशाप क्यों है? इसमे हमारा क्या दोष है? जिस तरह बागों की कलियाँ पुष्प बन जाती हैं और उन्हें भगवान के ऊपर आप चढ़ाती हो उसी तरह मैं भी बड़ी हो रही हूँ तो डरने की क्या बात है? कलियाँ तो नहीं डरती, न ही पुष्प बनने से इंकार करती हैं। बाग का माली कभी कलियों को पुष्प बनने पर चिंता नहीं करता तो आप क्यों मेरे अस्तित्व पर चिंतित हैं? आप तो फूलों को भगवान पर चढ़ाते जाइए, उनका आशीष दिलाते जाइए, न कलियों को कभी भौंरों का डर होता है, न मुझे किसी का डर है। हर सखियाँ अपने ससुराल चली जाएंगी, एक न एक दिन मैं भी किसी के साथ फेरे लेकर चली ही जाऊँगी। फूलों का काम ही हैं अपने-अपने भगवान पर निछावर हो जाना। साथ की सखियों का साथ और फूलों से मेरा गहरा नाता अभी मत तोड़िए अभी तो मैं भी एक कली ही हूँ, पुष्प बनने दीजिये, अपना आशीष दीजिये। गाँव अपना है, घर अपना है, लोग अपने हैं और भगवान भी अपने ही है। पूजा कभी बेकार नहीं जाती मेरी प्यारी दादी, भगवान पर और अपने परवरिश पर विश्वास रखिए। आज बसंती ने दादी को निरुत्तर कर दिया, तो उन्हें कहना पड़ा कि बहुत सयानी न बनो…….सम्हाल के जाना……..!!!!!!!!

उसी बाग में आज बसंती नाम का फूल खिला है उसकी बारात आई हैं। बाजों और शहनाई की मधुर धुन में असीम विश्वास की राग बज रही है। भौरें भी गुनगुना रहे हैं, खुश है कि एक भौंरा आज बसंती की पंखुड़ियों में सदा के लिए बंद हो गया है। जिन्हें हर उस कली से आस है जो अभी पुष्प नहीं बनी है। साथ की सब सखियाँ अपनी अपनी डलियों को सहेजे हुये हैं किसी की गोंद में पुत्र हैं तो किसी की गोंद में पुत्री सा अनमोल पुष्प है सबकी झोली भरी है। खुशी के इस पल में सभी विवाहित सखियाँ अपने अपने भगवान को साक्षी मानकर अपनी प्यारी सखी बसंती को आशीष दे रही हैं और अपनी संगत पर इठला रही हैं। साथ की छोटी सखियाँ अरमानों के फेरे में अपने आप को बसंती की जगह उठा- बिठाकर एक दूसरे को चिकोटी काट रही है। देख ले….. तेरी शहनाई भी जल्द ही बजेगी और तेरा शाहज़ादा भी ऐसा ही होगा…….चल, खाना खा लेते हैं वरना बची-खुंची खुरचन ही मिलेगी……रसमलाई तो पनिया ही गई होगी….. हा हा हा हा हा…..नाच देखने चलेगी….वो देख कितना मस्त ठुमका लगा रही है नीली लहंगे वाली….. वाह वाह क्या गाना है…..कुछ तो लोग कहेंगे, लोगो का काम है कहना…..छोड़ो बेकार की हैं बातें…..मेरी गीत ये जाये रह ना…….!!!!!!!

रात बीत रही है सुबह होने को है……दादी की भरभराई हुई आवाज ने सबको जगा दिया जो सोये तो नहीं थे पर गहन विचारों में जरूर सरक गए थे। नहला दो उसे और कपड़े शृंगार सजा दो…..समय पर विदाई हो जाय कहीं मुहूरत न निकल जाय……..हे….. राम…….विवसता का आलम……सब के सब भावुक हो जाते हैं, कहीं आँसू तो कहीं खयालात एक दूसरे को गले लगाकर भरे हुए सरोवर की भांति फूट पड़ते हैं। ढ़केल कर बसंती को डोली में बिठा दिया जाता है जहां उसकी हमउम्र सहेली कजरी उसके आँसू को पीने की कोशिश करती है, चुप हो जा सखी……अब और मत रुला पगली……गला सूख रहा है……कुछ पल की शांति/चुप्पी…..देख कजरी, दादी के लिए फूल जरूर लाया करना, उनका ख्याल रखना……सब्र का बांध टूटता है बसंती का और दहाड़ मार कर फफकने लगती है……..न चाहते हुए भी कजरी जिसे अनदेखा करते हुए कहती है बंदकर यह रोने-धोने का नाटक, अगर तेरी इच्छा नहीं है तो तेरी जगह मैं ही चली जाती हूँ जीजा जी के साथ, ले पकड़ अपनी डलिया, चली जा बाग में फूल लोढ़ने, ला-लाकर दादी के ऊपर चढ़ाते रहना…..और यह गाना बज जाता है…. सखी रे, मोरा नैहर छूटा जाए………..

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ