कविता : जलकुंभी
जलकुंभी
तालाब में बह आयी
हाय रे
किसी ने देखा नहीं
देखा भी तो
निकाला नहीं
वह फैलती ही गई
एक नाबालिग जलकुंभी
पहले माँ बनी
फिर दादी
फिर पर दादी
और भी रिश्तें जुड़ते गये
तलाब का सारा बदन
पूरी तरह से
ढक गया
जलकुंभी ने
तालाब को
कस के जकड़ लिया है
और फैलती ही जा रही है
अब चिड़ियों का जल-पात्र
जलकुंभी से छिपता जा रहा है
विशाल तालाब का अस्तित्व
अब मिटा जा रहा है
अब वह (तालाब) चिड़ियों को
हरे-भरे खेत-सा मालूम होता है
और बेचारी चिड़िया
दिन भर प्यासी
मारी-मारी फिर रही
अपना जलपात्र
ढूँढ रही हैं
दौड़-दौड़ कर
उसी तरफ जा रही
जहाँ
अब खेत है
तालाब
अब खेत बन चुका है