कविता – नन्हीं गौरैया
नन्हीं गौरैया
उड़ते-उड़ते चली आई
मेरे कमरे में
मैंने तुरन्त लपककर
बन्द कर दिया
खिड़की और दरवाजा
और पकड़ने लगा उसे।
नन्हीं गौरैया
अपने बचाव के लिए
फुदुककर पहुँच गई
पुरानी टँगी हुई तस्वीर पर
फिर दीवार में गड़ी हुई कील पर
फिर जंगले पर
फिर मेज पर।
उसे लगा
अब वो कैद हो चुकी है
किसी गलत और अंजान से पिंजरे में
यहाँ तो
पहले से मौजूद है
एक पंक्षी
जो चील की भाँति
उसे झपटना चाहता है।
बेचारी
बाहर निकलने की कोशिश में
कमरे भर में दौड़ती रही
और झूम-झूम कर चल रहे
तेज पंखे की
नुकीली पत्तियों से जा भिड़ी
उसकी गर्दन टूट गई
और शरीर लहूलुहान हो गया
वो फर्श पर धड़ाम से चित्त गिर पड़ी।
बेचारी
दर्द से कराहते हुए
तड़प-तड़प कर मर गई
और मैं पास खड़े होकर
सिर्फ देखता ही रह गया।