लौह पुरुष के अंतिम सपने का बिखर जाना
लौह पुरुष को रात भर नींद नहीं आई। उनकी पीड़ा का पारावार नहीं है। उन्हें आज पहली बार अपनी भलमनसाहत पर अफसोस हुआ। वट वृक्ष रूपी जो दल आज जब भारतीय राजनीति में अनंत शाखाएं फैलाए गर्वोन्नत खड़ा है, उसका बीजारोपण उन्होंने ही किया था। जब यह पौधा उगा था, तब लौह पुरुष और उनके एक अन्य साथी के रूप में दो ही पत्तियां इसमें थीं। लौहपुरुष और उनके साथी ने दल को अपनी जिजीविषा, मेहनत और कर्मठता के साथ धर्मवादी विचारधारा को सड़ा गलाकर खाद-पानी बनाया, उस वट वृक्ष को पुष्पित-पल्लवित किया। और उनका दुर्भाग्य देखिए कि एकाएक वट वृक्ष का माली ही बदल गया। उनकी प्रतिबद्धता और नीयत पर सवाल उठाए जाने लगे। नए माली ने पूरे बाग पर कब्जा कर लिया। यह वही माली था, जिसे कभी उसकी कारगुजारियों से नाराज होकर लौह पुरुष के साथी राजनीतिक वनवास दे देना चाहते थे। लेकिन यह लौह पुरुष ही थे, जो उसके सामने ढाल बनकर सामने खड़े हो गए थे।
उस माली ने बाग पर कब्जा करने के बाद सबसे पहले लौहपुरुष के पर कतरे। लौह पुरुष छटपटाकर रह गए। नए माली ने न केवल उन्हें बाग की चहारदीवारी से बाहर खदेड़ दिया, बल्कि उन्हें राजनीतिक वनवास ही दे दिया। लौह पुरुष को यह उम्मीद थी कि नया माली शायद उन्हें लौह पुरुष से शिखर पुरुष बना दे, लेकिन आज उनका यह अंतिम सपना भी टूटकर बिखर गया। वैसे सपने तो उनके कई टूटे, लेकिन यह सोचकर संतोष कर लिया, चलो..प्रधान नहीं बन पाए, तो क्या हुआ डिप्टी तो बन ही गए थे। लौहपुरुष की उपाधि तो जनता ने बड़े आदर-सम्मान के साथ दे ही दी। कहां सोचा था कि एक दिन इतिहास रचेंगे। इतिहास में नाम दर्ज हो जाएगा। नाम तो अब भी दर्ज होगा लौह पुरुष का, लेकिन हाशिये पर ढकेल दिए गए बेचारे पुरुष के तौर पर।
एक बहुत पुरानी कहावत है-जाके पैर न फटी बिंवाई, सो क्या जाने पीर पराई। लौह पुरुष का दर्द वही जान सकता है, जिसके सपने मुट्ठी से झरती रेत की तरह हाथ से निकल गए हों। भाग्य की विडंबना देखिए, जिस दल रूपी वट वृक्ष की रक्षा के लिए बेचारे लौह पुरुष जिंदगी भर कउआ हंकनी करते रहे, उसी दल के मालियों ने उन्हें यह सिला दिया। उनका आखिरी सपना भी बड़ी बेमुरौवत्ती से तोड़ दिया। आज लौह पुरुष को ठीक वैसे ही अफसोस हो रहा है, जैसे मुगल बादशाह औरंगजेब को अपनी जिंदगी की आखिरी रात में हजारों लोगों के कत्लेआम का पछतावा था। दल को खड़ा करने के लिए लौह पुरुष पूरे देश में यात्रा लेकर घूमे-फिरे, सोमनाथ तक गए। तब उम्र के हिसाब से भले ही पक्के यानी अधेड़ रहे हों, लेकिन उनका जोश और जुनून बिल्कुल कच्चा था। पूरे देश के भक्तों ने उनके इस कउआ हंकनी पर जोर-शोर से तालियां पीटी, बधाइयां दी थीं। पूरा देश लहालोट हो रहा था। उनके आगे-पीछे लोग बिछे जा रहे थे। वे जिधर मुंह उठाकर चल देते, हजारों-लाखों की भीड़ साथ चल पड़ती थी। …और आज वह दिन है कि लौह पुरुष अपने कमरे में लेटे आंतरिक पीड़ा से कराह रहे हैं और कोई उनकी पीड़ा पर मरहम रखने वाला नहीं है।