कविता : जिम्मेदारियों का बोझ
जिम्मेदारियों का बोझ है
देवें हौसला तो मर्द बनाना नामुमकिन भी नहीं
सजाती है रंग ख्वाबो में,तोड़ देते है दरिंदे
दुष्कर्म की आग में जल रही
कठिनाईयो की राहों पर चल रही
कहाँ गई संस्कृति उसे ढूंढो!
लोक नृत्य की है सांस्कृतिक सांझ
खामोशी भरी जिंदगी में रहोगे बांझ
यह आदेश नहीं निर्देश है?
बेहतर लम्हें संभाल लो!
वरना किसी भी मोड़ पर मुलाकात नहीं होगी
यह भोली सी कोकिला है
इसे मनोरंजन का हिस्सा न समझो
इन ‘माँ’ के कंठित स्वर को गरजना न पड़े
चुभ जाते है वो दिन जो कैसे कहूँ
उन्हीं रातों को बिखरना न पड़ें
शिक्षा की ज्वाला जलाऊँ तो कैसे?
कहाँ से शुरू करूँ…..कहाँ से अन्त?
अगर यूं चुप रहें तो,कुछ कह नहीं पाऊँगा
जरा सा साथ दो तो,स्त्री की दुर्दशा को बदल दूँ
इनका जेवर सभ्यता,संस्कृति है
इनका तेवर हौसले की मिसाल है
देश की वंदेमातरम है बेटियां
साहित्य के कलम की शक्ति है बेटियां
इस तरह धूप सहना न पड़े,
रुख की छांव है बेटियां
समझ नहीं आता मुझे….
कैसे बिना काँटो की राहें सजाऊँ?
कैसे निर्लज्ज आभूषण पहनाऊँ?