कविता : हिलोर
इक हिलोर
तेरी यादों की
सुने अंतस के
सुप्त कणों में
रह-रह कर
उठती है
इक हिलोर
अतीत के कब्र में
दफन आदमी की
परत दर परत को
उखेड़ती है
इक हिलोर
स्वार्थ की दुनिया के
झूठे बंधनों से मुक्तकर
सच्चे रिश्तों का
ताना-बाना बुनती है
इक हिलोर में
मर के जीना होता है
और इक हिलोर में
नीलकंठ बन सारे
जग का विष पीना होता है।