कविता : औरत
औरत !
जिंदगी भर
भट्टीखाने में
धुएं में
रोटियां
सेंकती हुई
बच्चों की
परवरिश में
गंवा देती है
जिंदगी
मर्द की डांट
सहकर
जुल्म बर्दास्त कर
खामोशी – सी
अख्तियार कर
खड़ी रहती है
बूत के भांति
औरत !
नसीब में
लिखाकर आती है
दर्द का छंद
जिंदगी भर
पड़ौस की सहेलियों के
समक्ष पढ़ती है
दिन में हुई
पल – पल की
हलचल के गीत
औरत !
समर्पण भाव से
मर्यादा के लबादे में
पिता की इज्जत के
खातिर
सह लेती है
ससुराल का हर जुल्म
औरत !
पीड़ा का समंदर
साहस का चरम
भावना और ममता का
अथाह प्रवाह
सबको समेटती है
अपने आंचल की छांव में….
— देवेन्द्रराज सुथार