कविता : चमेली के फूल
जब मैं छोटी थी फूलों की खुशबू
मुझे इत्र से ज्यादा भाँती थी
उन दिनों पापा के साथ पुलिस थाना के कैपंस में ही
टाली के बने दो छोटो कमरे रहते थे
थाना के चारों ओर बाग बगीचे थे
आम,कटहल,केला,जामुन,शरीफा के फल थे
क्यारियों में चमेली के फूल लगे थे
मैं यही सोचती थी ये फूल ही यहाँ क्यों लगें है
बाद पता चला इन पौधों को अल्प जल ही चाहिए
जैसे मुझे तुम्हारा थोड़ा प्यार!
इनकी खुशबू भी बहुत देर तक टिकी रहती है
थाने का वातावण संध्या में गमगम करता था
चौकिदारों द्वारा सबेरे संध्या पौधों में जल छड़काव किया जाता था
मैं और मेरे भाई भी चमेली के पौधों को खुब पानी देते थे
ताकि ज्यादा से ज्यादा फूल खिले
सफेद सफेद व बड़े बड़े!
संध्या को जब चमेली के फूल
अधखिले होते थे हम उन्हें तोंड़ सिरहाने रख लेती थी
सुबह जब पलक खुलती फूलों को पूर्ण खिला देख
खुशी से आँखे चमक जाती थी मेरी
उसको बार बार चुमती बार बार सुघँती
जा जा कर मम्मी पापा को बताती थी
मम्मी कहते क्यों सूँघा लिया
भगवान को अब ये फूल नहीं चढ़ सकते!
पर मुझे तो किसी ने सूँघा नहीं
स्पर्श भी नहीं किया
ना ही मैं बांसी हूँ
फिर मेरे भगवान ने मुझे
अपने चरणों में जगह क्यों नहीं दी
मैं इसी गम़ की घूलती हूँ
आसूँओं को उसका दिया प्यार
समझ दिन-रात पीती हूँ
मैं चमेली का फूल क्यों ना बनी!
— कुमारी अर्चना