कविता
पड़े हैं दर्द सीने के किसी कोने में,
फ्रिज में रखी मिठाई जैसे,
खराब न हो इसलिए
देख लेता हूँ एक बार
कि बदबू तो नहीं दे रहें,
सालों से जमा हैं,
लेना कोई नहीं चाहता,
सब दे जाते हैं।
मुझे डर है कहीं फुल न हो जाए
तो कहाँ रखूँगा?
एक छोटा-सा पिद्दा सा दिल,
और सैकड़ों की तादाद में मिलते हैं।
आज जो फ्रिज की तरह साफ करना चाहा
तो दहाड़कर बोले-‘वाह रे खुदगर्ज!जब सूना था दिल,
तो दिल लगा-लगाकर समेटा हमें।
अब घर से निकाल रहा है।
जिस तरह अपनों ने ठुकराया तेरी माँ को,
तेरी विकलांगता के कारण।
अगर तेरी आँखों में ज़रा भी पानी है
तो पाल हमें तू उस तरह,
जैसे पाला तेरी माँ ने तुझे,
अनगिनत कष्ट सहकर।’
मैं मौन हो गया,
मेरी सारी वाक् चातुरी जाती रही,
दर्दोँ ने दुखती रग पकड़ा,
अपना शिकंजा और जकड़ा।
जितना उनको भगाया
उतने ही और पाया।
— पीयूष कुमार द्विवेदी ‘पूतू’