हाँ अब कहो सब नश्वर है
बहुत ही अज़ीब रिश्ते हैं
अज़ीब तरह की कहानियाँ हैं
ज़िंदगी पल भर में क्या हो सकती है
सिर्फ गीले सूखे का सा फर्क है
हार जाते हैं सब अधिकार
परिस्थितियों को दोष मत देना
सब नश्वर है
ये कहोगे …
क्या प्रेम भी?
जीवन के उस पहले क्षण में
जो प्रेम का अधिकार पाया था
वो आज कर्म धिक्कार बना
तुम्हारे घर की चौखट भी नहीं लाँगी अभी
अभी तो शगनों की रात भी नहीं आयी
तुम अपने रिश्ते से पदच्युत हो गये?
कितनी आसानी से कह दिया
अब तुम परायी हुई
पहले ये बताओ
अपनी कब और किसकी हुई
हाथों में ले उछाला तब भी उतनी ही परायी थी
बाहों के झूले बनाये तब भी
अब डोली में बिठाने के ठीक आठ दिन पहले
कुछ और परायापन कहा से ले आये
प्रतिष्ठा और प्रेम में तादत्मय बैठा रहे थे क्या
जो कहना पड़ा तुम्हे
अब सब उनकी मर्जी
ये कैसा चक्रव्यूह?
इतने वर्षों तक नहीं देखा
उस औरत को तुम्हारे घर में अपना बनते
जिसे ले आये होगें तुम उस वक्त
जब यही सब घटित हुअ होगा उसके जन्मदाताओं के घर
अब तक भी तुम्हारा चूल्हा उसके लिये पराया चुल्हा ही रहा
आज कैसे सोच लिया मैं अपने घर जा रही हूँ
इस घर का अब तक का परिचय यहीं खत्म कर आये
मेरे बैंक खाते में मेरे नाम के साथ तुम्हारा उपनाम था
क्या ये कारण काफ़ी था
वो बैंक खाता बंद करने का
जो शायद वर्षों पहले खोल कर बहुत खुश हुऐ थे
उसमें भी मेरी ज़रुरत तो नहीं थी ना?
जो आज कह गये उनको ज़रूरत होगी तो खोल लेंगे
तुम आज जीवन का सकून पा गये
कन्यादान जीवन का मोक्ष दान कहलाता है
आज वो भी पा कर
तुम्हारे पुरुष होने का कर्तव्य भी पूर्ण हुआ….
हाँ अब कहो सब नश्वर है
— अंजू जिंदल