हिन्दी प्रान्तों के लोग भी अगर हिन्दी को अपना लें तो…
हिन्दी प्रान्तों के लोग भी अगर हिन्दी को अपना लें तो इसे किसी अन्य भाषा-भाषी का मुखापेक्षी होने की ज़रूरत नहीं है। दुनिया की जनसंख्या में हिन्दी-भाषियों की संख्या बहुत बड़ी है। पर समस्या यह है कि अपने ही घर में हिन्दी जलावतन हो गई है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है उत्तर प्रदेश के पाँच लाख बोर्ड परीक्षार्थियों का हिन्दी के पर्चे में अनुत्तीर्ण हो जाना। अन्य राज्यों और उनके भाषा-भाषियों की स्थिति भी इससे अच्छी नहीं होगी। जिन सरकारी विभागों को हिन्दी के प्रचार-प्रसार का काम दिया गया था, वे आत्म-सेवी सिद्ध
हुए। हिन्दी की दुर्दशा पर मैंने किसी राजभाषा-कर्मी को आन्दोलित होते नहीं देखा। अलबत्ता ज्यादातर हम हिन्दी का स्वस्ति-वाचन करते रहते हैं और झूठी-सच्ची रिपोर्टें बनाकर आंकड़ों का चर्वण करने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। अनुवादकों ने हिन्दी का ऐसा रूप लोगों के सामने रखा कि हिन्दी-भाषी भी बिदक उठे। एक तो पहले ही वे अंग्रेजी की रूप-माधुरी पर रीझे हुए थे, ऊपर से हिन्दी का यह विरूपित अवतार! आज पूरा सरकारी तंत्र जिस प्रकार की हिन्दी इस्तेमाल कर रहा है, उसे देखकर वितृष्णा होती है।
सरल बनाने के नाम पर हमारे नौकरशाह हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों की मिलावट का फरमान जारी करते हैं। गोया इस देश के आम नागरिकों को अंग्रेजी का बहुत अच्छा ज्ञान है!
हिन्दी वर्णमाला में अंग्रेजी के बरक्स लगभग दुगने वर्ण हैं। इसलिए उसे सीखने में विद्यार्थियों को कष्ट होता है। तो क्या हम अपनी भाषा के लिए इतना भी नहीं कर सकते?
इस देश में अंग्रेजी जानने और बोलने-लिखने को बहुत बड़ी योग्यता समझा जाता है। व्यक्तित्व-विकास के नाम पर लोग अंग्रेजी सीखते-सिखाते हैं। अंग्रेजी जैसे देवताओं की भाषा हो गयी! अंग्रेजी नहीं तो कुछ नहीं। क्या किसी प्रशासक, किसी नेता, किसी उद्योगपति, किसी सिने-नायिका अथवा नायक ने हिन्दी का परचम उठाकर देश का आह्वान किया कि इधर आइए, हिन्दी इस्तेमाल कीजिए और गौरवान्वित अनुभव कीजिए? यहाँ तक कि हिन्दी के सहारे रोजी-रोटी कमानेवाले भी गाहे ब गाहे अंग्रेजी का
ही नारा बुलन्द करते दिखते हैं।
हिन्दी के शिक्षकों ने हिन्दी साहित्य चाहे पढ़ा-पढ़ाया हो, किन्तु हिन्दी भाषा में कोई अनुसंधान और विकास हुआ हो, मुझे तो नहीं लगता। कोई मुझे यह बता दे कि विगत एक वर्ष में हिन्दी शब्द-कोश में कौन-से नये शब्द जुड़े? हिन्दी-जगत से बहुत-से शब्द गायब हो गये। यह तो मैं डंके की चोट पर कह सकता हूँ। और इसलिए गायब हो गये कि हमने यानी हिन्दी के नाम पर मोटी पगार पानेवालों ने इन शब्दों को बचाने के लिए तनिक भी कोशिश नहीं की। उन शब्दों की फेहरिस्त लंबी है, जिसे मैं यथासमय सभी को सूचित करूँगा। बहरहाल, आपकी इस कोशिश के लिए साधुवाद।
— आर.वी.सिंह
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