लोकतंत्र में कुत्तों का बढना घातक
आजकल गली में कुत्ते बहुत भौंक रहे है। और हमें देख चौंक रहे है। वैसी ही बिलकुल जैसे कोई बेईमान नेता किसी ईमानदार नेता को देखकर भौंचक्का रह जाता है। बुजुर्गे बताते है कि आजादी से पहले कुत्ते शांत रहते थे और रोटी का टुकड़ा न मिलने पर भूखे ही सो जाते थे। लेकिन जिस दिन से आजादी मिली उसी पल से कुत्तों को खाने की ऐसी आदत पड़ी कि अब सबकुछ साफ कर जाते है। अजीब प्रजाति है इन कुत्तों की। बारहमास तो पक्ष-विपक्ष में जमकर लड़ते है जैसे इनसे बड़ा झगडालू दुनिया में कोई है ही नहीं। लेकिन जब सावन झमाझम बरसने लगता है तो यह आपस में गठबंधन कर हनीमून भी मना लेते है। ईमानदार को काटने को उसके पीछे मीलों तक ऐसे दौंडते है जैसे किसी भले आदमी की बाईक के पीछे दौड़ लगाते है। इन कुत्तों की संख्या दिनोंदिन वृद्धि कर रही है। इनके वृद्धि दर में वृद्धि होना स्पष्ट संकेत देता है कि आजकल गठबंधन-ठगबंधन तीव्र गति से अपने पांव पसार रहा है। जिंदा तो जिंदा मुर्दे को भी जिंदा समझकर चबा रहा है।
दरअसल, कुत्ते अपनी वफादारी के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। यदि अब मैं “है” की जगह “थे” कर दूं तो आप मुझे तो कई काटने नहीं दौडेगे ! आजकल के कुत्ते तो स्मार्ट सिटी और डिजिटल दुनिया में जन्म ले रहे है। इनको भोला समझना खुद को मूर्ख साबित करना है। यह तो इतने शातिर है कि बाजू में कोई अच्छी दिखने वाली कुत्तिया दिख जाये तो रातों-रात काम तमाम कर देते है। इनकी इसी लूटने की प्रवृत्ति ने लोकतंत्र को लूटतंत्र के खिताब से नवाजा है। इनको तो खुराक में चाहिए हर दिन रिश्वत का मांस, हुस्न की मदिरा और लोगों को सज्जनता का सर्टिफिकेट देने के लिए संत कबीरा। इनकी वाक्-चातुर्यता के आगे भीड़तंत्र का हिस्सा और हर ओर से मारी गई जनता सीधे ही शब्दों की चाश्नी में बहकर बाटली में चली आती है। अब कोई ऐसा बंदा नही है जो इन कुत्तों के तड़ीपार करनामों को देखकर आवाज दे – कुत्ते । मैं तेरा खून पी जाऊंगा।
इन कुत्तों के आगे जनता जनार्दन उस गाय की तरह है जिसको भगवान ने दो सींग तो दिये है। लेकिन बेचारी को किसी ने मारने का हुनर ही नहीं सिखाया। इसलिये कत्लेखाने में कटने को विवश है। यदि कोई गधा ही जाकर इन गायों को उनकी शक्ति का दर्पण दिखलाये तो इनको परेशान करनी की किसी कुत्ते की हिम्मत नहीं होगी। कोई आंखे उठाकर देखने की जरुरत नहीं करेगा। इन पागल कुत्तों का एक ही इलाज है इनसे कदापि डरा नहीं जाये बल्कि निर्भीकता से इनकी कुत्तापंथी को उजागर कर मौत के घाट उतारा जायें। कुत्तों का हद तक सीमित रहना बड़ा संकट नहीं लेकिन हद से इनकी संख्या का गुजर जाना इंसानियत के लिए आने वाला बड़ा खतरा है।
यह समस्या इतनी शीघ्र भी नहीं सुलझेगी। क्योंकि आज पूंजीवादी पुरुषों और औरतों में कुत्तों को पालने की रेस लगी है। उनके गले में पट्टा डालकर अंगुलियों पर घूमाने का शौक परवान चढ़ा है। सोचनीय है जब तक पूंजीवादी लोग कुत्तों को पालतू बनाने की परंपरा नहीं छोडेंगे तब तक गरीब और निम्न-वर्गीय जनता बेबस और बेसहारा होकर मरघट तक का सफर करती रहेगी। इसका एक ही समाधान है यहां तो पूंजीवाद का पतन किया जाये या फिर उसे व्यवस्थित कर सुधारा जायें। मूक-बधिर होकर तमाशा किसी भी हालात में नहीं देखा जायें।