विश्वास या अंधविश्वास
आज शाम जब मुझे पढऩे के लिए कुछ नहीं मिला , तो मैं अपने सामने रखे अल्मारी की तरफ बढ़ा, जिसमें मैंने ढेर सारी मैगजीने एवं डायरियां रखी हुई थी। मैं अपनी अल्मारी में रखी मैगजीने-डायरियां देखने लगा। जब भी जिस मैगजीन पर नजर पड़ती तो याद आता यें मैगजीन मैंने तब खरीदी थी, वो मैगजीन मैंने तब खरीदी थी। बात डायरी की करें तो सोचता यें डायरी मंैने तब लिखी थी वो डायरी मंैने तब लिखी थी, उनमें से एक डायरी सबसे अलग थी जब अचानक मेरी नजर अल्मारी में रखी उस लाल रंग की तेरहवीं डायरी पर पड़ी तो याद आया कि मैंने इस डायरी का तेरहवां पन्ना किसी की याद में नहीं बल्कि अपनी जीवन की वों घटना के बारे में लिखा था। जो बचपन में मेरी साथ घटी। वैसे मुझे मैगजीने पढऩे एवं डायरी लिखने का शौक बचपन से ही था। शायद यूं कहें की पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा यह एक वंशवादी कंप्यूटर वायरस की तरह था। असल में मेरे पिताजी अखबारोंं को बड़े शौकिन थे। हमारा गांव शहर से काफी दूर था, फिर भी पिताजी कही न कही से अखबार का जुगाड़ कर के ले ही आते थे। उनकों पढ़ता देख हममें भी पढऩे की रूचि जागी। अत: हम भी आये दिन अखबार पढ़ते रहते थे। सच कहंू तो इसे पढ़े बगैर ना भूख लगती थी ना प्यास। अखबार में तमाम तरह की खबरें आती रहती थी। शहरों में हत्या, आमहत्या एवं लूटपाट की बातें लगभग हर दिन छपती रहती थी। जबकि गांवोंं में इस तरह केघटनाएं बहुत कम ही देखने को मिलते थे या यों कहें गांव का महौल काफी शांतिपूर्ण था। उस समय गांव में बस एक ही अपराध बहुचर्चित था। वों था, चोरी करना। वो भी रूपये पैसों की नहीं, बल्कि फल-फूलों की। जो अक्सर रात में हुआ करती थी। शाम होते ही गांव में अंधेरा छा जाता था,क्योंकि उस समय गांव में बिजली नहीं थी या यू कहें बिजली के तार ही नहीं थे। दूर-दूर तक बस एक ही चीज नजर आती थी जो लगभग हर घर में जलती दिखाई देती थी। एक तो चल्हूे की आग दूसरी लैंप की रोशनी। वो भी मिट्टी केतेल वाली। कई लोगों के पास तो मिट्टïी का तेल भी नहीं होता था। अत: वें लोग चीड़ की लकड़ी (कुमाऊंनी में छिलके) जलाते थे। गांव में डर था तो बस एक ही चीज से वो था भूत। यानी मृत आत्मा। गांव में अलग-अलग तरह केभूत होते थे। इनमें से तीन भूतों की कहानी पूरे गांव मेंं बड़ी चर्चित थी। जिनमें पदम के पेड़ का भूत, च्वैल गधेरे का भूत और सबसे खतरनाक अखरोट के पेड़ का भूत। बचपन में दादी बताती थी कि पदम के पेड़ के नीचे एक बच्चा रोता था। वह शाम से लेकर लगभग रात १२ बजे तक रोता रहता था फिर अचानक एकाएक चुप हो जाता था। बताते थे कि बहुत साल पहले एक बच्चा उस पेड़ से गिरकर मर गया था, पेड़ से गिरने के बाद वह रोया था तब से वह रोज रोता रहता था। इसी बात को लेकर शाम को गांव के बच्चों का घर से बाहर निकलना जैसे आ बैल मुझे मार वाली कहावत को सिद्ध करना था। बात करें च्वैल गधेरे के भूत की तो लोग कहते थे, कि वर्षों पहले एक औरत इस जंगल में घास काटती हुई पहाड़ी से गिरकर इस गधेरे में आ गिरी। शरीर पर गहरें चोट लगने केकारण उसकी मौत हो गयी। तब से हर शाम वह औरत घास काटते हुई इस गधेरे में घुमती रहती थी। गांव में अखरोट का पेड़ बड़ा चचित था। बुजुर्ग बताते है कि इस अखरोट के पेड़ में गांव की एक लड़की ने फांसी लगा ली थी, हुआ यंू कि उस लड़की ने उस पेड़ से अखरोट चूरायें थे। जब माली ने पकड़ा तो खूब पिटाई की। साथ ही उसके घर वालों से भी शिकायत कर दी। घर में भी पिटाई के डर से उस लड़की ने उसी अखरोट के पेड़ में फांसी लगा ली। तब से वह भूत बनकर उस पेड़ पर रोज अखरोट तोड़ा करती थी। इस डर से उस पेड़ से कोई भी अखरोट तोडऩे या चूराने की भी हिम्मत नहीं करता था। यहां तक कि खुद माली भी नहीं तोड़ता था। अत: उस पेड़ में अखरोट आते फिर टूटकर उस पेड़ के चारों तरफ बिखर जाते थे। यह सिलसिला कई वर्षों से चला आ रहा था। मन में बस एक ही डर था, कि जो भी इस पेड़ से अखरोट तोड़ेगा। वह भूत उसे पकड़ लेगा। अत: बच्चेे तो क्या बूढ़े भी उस अखरोट केपेड़ की नजर उठाकर नहीं देखते थे। लेकिन फिर भी लोगों का कहना था कि इस पेड़ केअखरोटों का स्वाद ही कु छ और है। अगर इन्हें चुरा के खाया जाय तो मजा ही कुछ और था। वैसे भी चुरा के खाने में चीजों का मजा ही कुछ और होता है।
इस बार उस पेड़ में खूब अखरोट आये थे। इसी लालच के चलते एक शाम मैं और मेरा भैंया घरवालों से छुपके उस अखरोट के पेड़ के पास पहुंच गये। भैया ने कहां तू पेड़ में चढ़। मैं नीचे खड़ा रहूंगा, पेड़ों पर चढऩे मुझे खूब आता था। अत: मैं पेड़ में चढ़कर अखरोट तोडऩे लगा। लेकिन मन में कुछ डर फिर भी था। दो-चार अखरोट तोडऩे के बाद अचानक तेज हवा का झोंका आया या मानों जैसे भूत कह रहा था उतर जाओं पेड़ से। मत तोड़ों मेरे अखरोट। हवा से आस-पास की झाडिय़ां हिलने लगी, तो भैया ने कहां उस झाड़ी के पिछे कोई हैं। मैंने जवाब दिया अरे कोई नहीं है हवा से झाड़ी हिल रही है। तू भी बड़ा अंधविश्वासी है। भला इस जमाने में भी भूत होता है क्या। अरे कैसे भूत, कहां के भूत। सबसे बड़े भूत तो हम दोनों है जो रात केघनघोर सुनसान अंधेरे में अखरोट चुरा रहे है।
लेकिन मेरा भैय्या कुछ अंधविश्वासी जरूर था या यूं कहें अंधविश्वास हमारा एक परिवारिक संस्कार की तरह था। अचानक भैय्या ने कहा उधर कुछ जरूर है भाई। उसने कहां देख वह हिलने-डूलने वाली चीज स्थिर हो गयी। तो थोड़ा मैं भी डर गया। वह जोर से चिल्लाया कि भूत आ गया और भागने लगा। उसको भागता देख मंैने भी पेड़ से कूद मार दी। तो मैं हड़बड़ाहट में झाडिय़ों में जा गिरा। हाथ-पैर ही क्या पूरा बदन डर केमारे कांपने लगा। मैं थोड़ी हिम्मत करके आगे को भागने लगा, तभी अचानक किसी ने मुझे पिछे की ओर खींच लिया। अब डर के मारे मेरे बदन में काटो तो खून नहीं। फिर मैंने इधर-देख करभागने की कोशिश की लेकिन वह चीज थी छोडऩे का नाम ही नहीं ले रही थी। अब तो मेरी सांसे और तेज हो गयी। ऐसा लग रहा था मानों अब यमराज शरीर से प्राण निकालने वाले ही है। अत: मैं जोर से चिल्ला उठा और वही पर बेहोश हो गया।
मेरा भैय्या तब तक घर पहुच चुका था। उसने घर में सबकुछ बता दिया तो यह खबर पूरे गांव में आग की तरह फैल गयी कि उसके लड़के को अखरोट के पेड़ वाले भूत ने पकड़ लिया है। अत: गांव के लोग लकड़ी-डंडे लेकर अखरोट के पेड़ की तरफ बढऩे लगे। धीर-धीरे सारे गांव के लोग उस अखरोट के पेड़ के चारों तरफ इक_ïा हो गये। उनके हाथ में जलती हुई चीड़ की लकडिय़ा (लंबे छिलके) थे। इन छिलकों की रोशनी से पेड़ के चारों तरफ रोशनी फैल गयी। लोगों ने देखा कि उस झाड़ी में मेरे अलावा दूर-दूर तक कोई भूत क्या चिडिय़ा तक नहीं थी। मैं डर के मारे उस झाड़ी में बेहोश पड़ा था। जब लोगों ने मुझे झाड़ी से उठाया तो देखा कि मेरी कमीज एक कुंज के कांटे (एक लंबा तार के जैसा कांटा जो अक्सर पहाड़ों में उगता है।) में फंसी पड़ी थी। लोग कांटा निकाल के मुझे घर ले आये और मैं था, कि होश में आने का नाम ही नहीं ले रहा था। ऊपर से तेज बुखार भी चढ़ा था। इसके चलते दादी ने गांव के वैद्य जी को बुलाकर मुझे बबुती (राख का टीका) भी लगा दी थी। लेकिन मैं था कि टस से मस नहीं हुआ। पूरा रात बेहोश रहने का बाद मुझे अगले दिन जब होश आया तो मेरे चारों तरफ गांव के सभी लोग खड़े थे। सभी ने पूछा कि तुमने वहां क्या देखा। मैंने जवाब दिया कि किसी ने मुझे पीछे से पकड़ लिया था और छोडऩे का नाम ही नहीं ले रहा था। जिस कारण मैं चिल्ला उठा और रोते-रोते वही पर बेहोश हो गया। लेकिन गांव वालों का मानना था कि मुझे पीछे से उसी लड़की ने पकड़ा था, जिसने वर्षों पहले उस अखरोट के पेड़ पर फांसी लगा ली थी। लेकिन जहां तक मेरा ख्याल है वहां कोई भूत-वूत नहीं था, वह तो कुंज का कांटा था। जिसमें मेरी कमीज फंस गयी थी। लेकिन फिर भी मुझे कभी-कभी उस बात पर विश्वास नहीं होता कि वह भूत था या कुंज का कांटा। आज भी मैं इस अधेड़बुन में फंसा हूॅ कि विश्वासी बनू या अंधविश्वासी।
— जीवन राज