भारतीय बुजुर्गों के संदर्भ में अल्जाइमर रोग
हाल ही में विश्व अल्जाइमर सोसाइटी ने 16 और 17 जुलाई 2017 को लंदन में अल्जाइमर एसोसिएशन इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस (एएआईसी) 2017 का आयोजन किया। इस सम्मेलन में दुनियाभर के डॉक्टरों ने अल्जाइमर रोग पर गहनता से विचारविमर्श किए गए। अल्जाइमर डिसीज़ इंटरनेशनल (एडीआई) के मुताबिक दुनिया भर में लगभग 47 मिलियन लोग डिमेंशिया अर्थात् मनोभ्रंश में रहते पाए गए हैं और सन् 2050 तक यह संख्या 131 मिलियन तक पहुंचने की आशंका है। यह अनुमान है कि विश्व में मनोभ्रंश के 60 से 80 प्रतिशत मामले अल्जाइमर रोग से सम्बद्ध होते है। अल्जाइमर रोग से अधिकतर 85 साल या उससे अधिक आयु के आसपास वाले बुजुर्ग ही प्रभावित होते हैं।
भारत के बुजुर्ग भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं। हमारे यहां भारत में भी तकरीबन 50 लाख से भी ज़्यादा लोग किसी न किसी प्रकार के डिमेंशिया का सामना कर रहे हैं, जिसमें से 80 प्रतिशत लोगों को अल्जाइमर है। डॉक्टरों का कहना है कि 2030 में यह संख्या दोगुनी हो सकती है। हालांकि चिकित्सकीय दृष्टिकोण से डिमेंशिया और अल्जाइमर अलग अलग श्रेणी में रखे जाते हैं, पर आमतौर पर भूलने की बीमारी में इन सबको एकसाथ लेकर ही बात की जाती है।
यहां मुख्य विषय यह है कि अल्जाइमर से प्रभावित बुजुर्गों के प्रति पारिवारिक व सामाजिक व्यवहार भारतीय परिवेश में अपेक्षाकृत अधिक सौहार्द्र व सहानुभूतिपूर्ण कहा जा सकता है। बहुत पहले एक रिपोर्ट आई थी उसमें स्पष्ट किया गया था कि भारत में बुजुर्गों में इस बीमारी के आंकड़े विश्व के अन्य देशों की तुलना में काफी कम हैं। इसके मूल में निःसंदेह हमारी वह संस्कृति है, जिसमें हम भारतीयों के लिए माता पिता और हमारे बुजुर्ग अतिपूजनीय होते हैं। उनकी देखभाल करना हर भारतीय अपना कर्तव्य समझता है। इसलिए जब चिकित्सा विज्ञान की इस लाइलाज बीमारी का विश्लेषण भारतीय संदर्भ में किया जाता है तब यह भावनात्मक तौर पर लाइलाज नहीं बल्कि निष्ठा की पराकाष्ठा परखने की चुनौती लगती है।
पारिभाषिक तौर पर अल्जाइमर रोग बुजुर्गों में भूलने की बीमारी को कहा जाता है। अक्सर बुजुर्ग इस बात से परेशान रहते हैं कि उनको कोई बात याद नहीं रहती है। सामान्य तौर पर इसे भूलने की बीमारी नाम दे दिया जाता है, लेकिन चिकित्साविज्ञान की भाषा में इसे अल्जाइमर रोग कहा जाता है। अलोइस अल्जाइमर नामक वैज्ञानिक ने सबसे पहले इस रोग के बारे में पता लगाया था, इसलिए उनके सम्मान में भूलने की इस बीमारी का नाम अल्जाइमर रोग रखा गया है। इसमें मुख्यरुप से मस्तिष्क में पाई जाने वाली लगभग सौ अरब तंत्रिका कोशिकाओं (न्यूरान) के धीरे धीरे क्षय होने के कारण रोगी की बौद्धिक क्षमता और व्यावहारिक लक्षणों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यह बीमारी बुजुर्गों में 60 वर्ष से शुरु हो सकती है। प्रारम्भिक स्तर पर इसके नियमित परीक्षण और उचित इलाज से इसे काफी हद तक ठीक किया जा सकता है। परन्तु इसके स्थायी उपचार के लिए अभी भी प्रयास चल रहे हैं।
याददाश्त की कमी हो जाना इसका सबसे बड़ा लक्षण माना जाता है। इसके अलावा कई बार पीड़ित बुजुर्ग ठीक से कोई निर्णय नहीं ले पाते और यहां तक कि अच्छे से बोलने में भी उनको तकलीफ होती है। ऐसा भी होता है कि इन कारणों से उनको सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं की गंभीर स्थिति से भी गुजरना पड़ता है। इस बीमारी के अन्य लक्षणों में रक्तचाप, मधुमेह, सोचने की शक्ति में कमी आदि भी सामिल हैं।
हालांकि चिकित्साशास्त्र में भी यह नहीं जाना जा सका है कि अल्ज़ाइमर बुजुर्गों में शुरू कब और कैसे हो जाता है, फिर भी उनका मानना है कि इस बीमारी के लक्षणों के प्रकट होने के कई सालों पहले से व्यक्ति के मस्तिष्क में क्षय होना शुरू हो जाता है। अल्ज़ाइमर से पीड़ित बुजुर्ग में शुरुआत में किसी तरह के कोई रोग लक्षण नहीं दिखते, परन्तु बाद में धीरे धीरे जब एमलौइड नामक प्रोटीन मस्तिष्क में भारी मात्रा में इक्ट्ठा होने लगता है, तब मस्तिष्क की तंत्रिकाएं काम करना बंद करने लगती हैं। इससे बुजुर्गों में कई बार ये देखने में आता है कि वे एक ही बात को बार-बार बोलने लगते हैं, क्योंकि उनकी याददाश्त कमजोर होने लगती है। कई बार वे अपने ही लोगों के नाम व संबंध तक भूल जाते हैं। भारतीय परिवारों में परिहास में ही लोग कहने लगते हैं कि फलां बुजुर्ग अब सठियाने लगे हैं। यानि हमारे भारतीय समाज का सठियाना ही अल्ज़ाइमर का संकेत है।
इस बीमारी से ग्रस्त बुजुर्ग पूरी तरह से देखभाल करने वालों पर निर्भर हो जाते हैं। यह बीमारी कई सालों तक रहती है। आज के समय में लोग अल्जाइमर जैसी बीमारी के बारे में जागरूक हो रहे हैं। कई बार परिवार वालों को मरीज से कैसे बर्ताव करना है, इसके बार में जानकारी नहीं होती है। परन्तु फिर भी भारतीय संस्कृति में यूं भी बुजुर्गों की देखभाल करना एक बड़ा दायित्व समझा जाता है। व्यक्तिगत रुप से या कई बार परिस्थितिवश यदि संतानें देखभाल स्वयं नहीं कर पा रही हैं तो वे अपने बूढ़े माता पिता की देखभाल के लिए सुरक्षित व उत्तम प्रबंध करते हैं। निम्न, निम्न मध्यमवर्गीय, मध्यम मध्यमवर्गीय, उच्च मध्यमवर्गीय त्रेणी के भारतीय परिवारों में आज भी लोग अपने माता पिता की सेवा अपनी सामर्थ्य के अनुसार करते ही हैं। हां उच्चवर्गीय व धनाढ्य श्रेणी के परिवारों में सेवा व देखभाल के भावनात्मक पैमाने अवश्य बदल गए हों परन्तु फिर भी कर्तव्यों को लोग नहीं भूले हैं।
बुजुर्गों के प्रति भारतीय कर्तव्यनिष्ठा ने आज भी अल्जाइमर जैसी बीमारी के बोझ से भारतीय बुजुर्गों को अलगाव के जीवन से मुक्त रखा है। समय पर भोजन, सोना, दवाइयां देना, मनोरंजन का खयाल रखना, उनको भवनात्मक ठेस न पहुंचे, वे अपनेआप को बोझ न समझें जैसे कई मनोवैज्ञनिक पहलुओं का भारतीय बेटे बेटियां यूं भी खयाल रखती हैं। निश्चितरुप से ये संस्कार उनको उनके बुजुर्गों से ही मिलते हैं। अतः अल्जाइमर जैसी चुनौतीपूर्ण बीमारी का जब भारतीय सामाजिक परिवेश में विश्लेषण किया जाता है तो सबसे बड़ी बात यही सामने आती है कि हमारे संस्कारों और सभ्यताओं ने अल्जाइमर को हमारे बुजुर्गों पर हावी नहीं होने दिया है। अपवाद कहां नहीं होते। करोड़ों के भारतीयों में सौ पचास संतानें यदि अपने माता की देखभाल से विमुख हैं, तो यह उनका दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। वरना तो भारत आज भी माता-पिता देवो भवः की परम्परा का निर्वाहन करता आ रहा है। जहां अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियां कर्तव्यनिष्ठा में बाधक नहीं बनतीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक स्तर पर रिश्तों को और समीप ला देती हैं।