मेरी मासी यात्रा
कल रविवार को मैने परीक्षा देने के लिए जाना था, मेरा सेन्टर अल्मोड़ा जिले के स्याल्दे विकासखण्ड में गैरखेत नामक स्थान पर पड़ा था। दूर होने के कारण मैंने शानिवार की रात को ही निकलना उचित समझाा। अत: मैं दफ्तर से घेर लौटने के बाद खाना-पीना खा के रात में लगभग 9 बजे हल्द्वानी बस स्टैड पर खड़ा हो गया। मैन प्रेस वाली टैक्सी से जाने की सोची थी, इसलिए उसे दिन में ही फोन कर दिया। जब रात में मैने उसे फोन मिलना तो वह बोला बस अभी आ रहा हूॅ। हम उसके इंतेजार में बस स्टैड पर डट गए। धीरे-धीरे यहां की भीड़ ने मेले का रूप धारण कर लिया। यह कोई उत्तराणी या देवीधूरा का मेला नही ळाा, बल्कि उत्तराखण्ड के बेरोजगारों का मेला था। जो रोजगार की तलाश में भटकते नजर आ रहे थे। यहां उत्तराखंड ने सेन्टर ही ऐसे रखे थे मानो जैसे मकड़ी न जाल बुन रखा हो। पूर्व वालो का पश्चिम, उत्तर वालो का दक्षिण दिशा में उपर से गाडिय़ों की कोई व्यवस्था नहीं। वाहनों की कमी से युवक दर-दर भटके रहे थे।
इसी का फायदा कुछ छुटपुट टैक्सी वाले उठा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानों बेरोजगारों ने टैक्सी वालों को रोजगार दे दिया । टैक्सी वाले चांदी क्या सोना भी काट रहे थे। रेट तो इतने हाई चढ़ गए थे । जैसे मंहगाई न मुंह फेर लिया हो। आप जागेश्वर जाओं या बागेश्वर रेट एक ही था, लेकिन र्फे बस इतना था की आज बागेश्वर के टिकट में जागेश्वर घु सकते थे। अत: जिन लोगों का सेन्टर जागेश्वर था उन्हें बागेश्वर जाने से कोई फायदा नहीं था। टैैक्सी का इंतेजार करते-करते हमें गस स्टेशन पर रात के 10 बजे गए। लगभग साढ़े दस बजे पर टैक्सी वाला आया। वह हमें पहले से ही जानता था। इसलिए ढूढने में भी कोई दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि वह जिस प्रेस से अखबार ले जाता था उसी के प्रेस के दफ्तर में हम भी काम करते थे। थोड़ी बात-चित के बाद मैं गाड़ी में बैठ गया। वह अपनी सवारियां ढूढने चले गया। मैं अपने जूते उतार के सीट पर लेट गया। सामने पहाड़ी कैसेटों की दुकान में बजे रहे गाने की धुन जब मेरी कानों में पड़ी मो मैं आश्यर्च चकित रह गया। गाने के बोल थे….. मेयरों दाज्यू ले पढ़ वे लिख बे रे घर पना बेरोजगार रे गों……
यह गाना उ न बेरोजगार युवकों के जख्मों पर मिर्च का मरहम लगाने जैसा था।
थोड़ी देर में एक महाशय आकर हमारे बगल पर बैठ गऐ। बेचारे पांव से थोड़ा विकलांग थें। वैसे बाते करने में हम भी अपने को तीस-मार खां से कम नहीं समझते थे।
तो बातों-बातों में उनसे परियच हुआ पता चला कि वह भी वीडीओं की परीक्षा दने आऐ है। वह महाशय टिहरी से आए थे। वो भी इतनी दूर वीडीओं बनने के लिए। यहां दिख रहा था उत्तराखंड के विकास का असली चेहरा। मैने पूछा भाई आपको तो आरक्षण मिलता होगा। वह बोले मिलता है, विकलांग का 3 प्रतिशत। उन महाशय ने आरक्षण का जो चि_ा हमारे सामने प्रस्तुत किया वे गजब का था। वे बोले अगर कान खराब है तो 1 प्रतिशत, पांव खराब है तो 1 प्रतिशत ओर आंख खराब है तो 1 प्रतिशत इस प्रकार इन तीनों को जोड़कर 3 प्रतिशत होता है। इन महाशय का कहना था भैया मैं तो पांव से विकलांग हू अत: मुझे 1 ही प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। सरकार के खिलाफ जो गुस्सा इनके अन्दर भरा था। वह तो देखने लायक था। फिर कभी बेरोजगारी तो कभी मंहगाई की बहस हम दोनों के बीच होती रही।
इस बहस के दौरान हम दोनों अपने को संसद में बैठे किसी नेता से कम नहीं समझ रहे थे। धीर-धीरे गाड़ी में सवारी बढ़ती गई, हम लोगों की बहस जारी रही। गाड़ी में पूरी सवारी हो गई तब तो मंहगाई और बेरोजगारी के मुद्दे रबर के गेंद की तरह ऊपर उछलने लग गए। इस बहस के दौरान गाड़ी ऐसी लग रही थी मानों संसद भवन हो, ड्राईवर स्पीकर और हम लोग संसद में बैठे नेता। सवारियां पूरी होने के बाद टैक्सी वाला प्रेस की ओर चल दिया अखबार भरने। प्रेस पहुंचकर उसने रोज की भांति गाड़ी बाहर खड़ी कर सवारियों को उतरने का आदेश दिया। असल में आप प्रेस के अन्दर सवारी भर के नहीं जा सकते है। अखबार भरने के बाद लगभग रात के 2 बजे वह हल्द्वानी से चला । बातों -बातों में और सवारियों से भी परिचय हुआ। लगभग 6 लोग और थे जो परीक्षा देन आए थे। हम लोगों की पूरी रात बस दो ही मुद्दों पर बहस होती रही पहला मुद्दा बेरोजगारी का दूसरा मंहगाई का।
पहाड़ का सफर होने के कारण सभी लोग रात भर जागे रहे। सुबह लगभग 5 बजे गाड़ी रानीखेत पहुंची, तो एक-दो सवारी उतर गई। हमें तो अभी दूर जाना था, अत: हम अपनी सीट पर ही डटे रहे। वैसे भी बाहर निकलने वाला नहीं हो रहा था। ठंड ही इतनी थी। मैने फाटक का शीश खोलकर बाहर झाकने की कोशिश की, बाहर देखा तो यहंा भी हल्द्वानी जैसा हाल था बेरोजेगारों की बेहसिाब भीड़ और उदास चेहने उनके कंधे में लटका बैंग मानों बेरोजगारी का कार्ड हो। ठेड से कपकपाते उनके होठ मानों ऐसा कर रहा हो अब तो रोजगार दे दो भगवान। अगे बढ़ते-बढ़ते हमें द्वाराहाट में उजाला हो किया। यहां भी वही हाल था, बेरोजगारों की एक लम्बी फौज क्रिकेट स्टेडियम की तरह खचाखच भरा पूरा द्वाराहाट बाजार । चारों तरफ पहाडिय़ों से घिरने से ऐसा लग रहा था मानों हम द्वाराहाट नहीं किमाचल के धर्मशाला क्रिकेट स्टेडियम में खड़े हो। आगे जब हम चौखुटिया पहुंचे तो यहां भी बेरोजगारों का मेला था। आज तो ऐसा लग रहा था पूरे उत्तराखंड में मेला लगा है, वो भी कुंभ से भी बड़ा। इस मेले में आऐ लोगों के उदास चेहरे देख के बड़ा तरस आ रहा था।
मैं सोचने लगा अगर आज परीक्षा में कोई निबन्ध आ जाता कि अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो। इस पर 500 शब्द लिखों। मैं पांच सौ क्या पांच हजार शब्द लिख देता हकीकत में इन शब्दों में बेरोजगारों को रोजगार दे ही देता। बेरोजगारी पर काफी हद तक अंकुश लगा देता । चलो कम से कम हम सोच ही सकते है। चाहे हम प्रधानमंत्री बने या ना बने अकुंश लगा देता। चलो कम से कम हम सोच ही सकते है। चाहे हम प्रधानमंत्री बने या बने निबंध तो बन ही सकते है। गनाई पहुचने के बाद गाड़ी वाले ने मुझसे कहां आन यहां से दूसरी गाड़ी पकड़ लो। गाड़ी से उतरने के बाद पैसे देने लगें पर गाड़ी वाला था, कि पैसे लेने का नाम ही नहीं ले रहा था। बोला नहीं सर आप तो स्टाफ के आदमी है, भला आपसे पैसा कैसे ले लू। काफी कोशिश करने के बाद भी मै उसे पैसे देने में नाकाम रहा। गनाई में थोड़ा इंतेजार करने के यबाद केमू की छोटी बस मिल गई सभी लोग चढ़ रहे थे। अत: एक लम्बी कतार में खड़े होकर मैं भी बस में चढ़ गया। उस ठसाठस भीड़ में 25 रूपये टिकट देने के बाद में सीट पर बैठा नजरें फिराई तो पूरी बस में वही बेरोजगार चेहरे नजर आऐ। ये सभी लोग चले थे। वीडीओ बनने। लगभग आधे घंटे बाद मासी में बस रूकी तो मैं भी उतर गया। यहां से मुझे गैरखेत जाना था, जो शायद ही मैंने कभी नही सुना था। रानीखेत सुना ताड़ीखेत सुना लेकिन गैरखेत दूर-दूर तक नही सुना था वैसे कभी काम भी नही पड़ा था। चलो छोड़ो अब जाना तो वही था। एक -दो लोग से पूछाताछ की तो पता चला की लगभग 10 से 12 किलोमीटर था। टैक्सी स्टैड पर जाकर मैने पूछा भैया गैरखेत चलोगे। वह एक टक मुझे देखता रहा फिर बोला हां जाऊगां बैठ जाओं। हमारे बोलने से उसे कुछ अलग-सा लगा क्योंकि हम शहरों में टैम्पों और रिक्शे वालों से बोलने के आदी थे। टैक्सी के अंदर बैठते ही मैं बोला भैया चलों तो वह बोला भैया 10 सवारियां पूरी होने दो तभी चलेगे। अब हम इंतेजार में बैठ गऐ कब दस सवारी पूरी होगी। धीरे-धीरे उस गाड़ी की तरफ बेरोजगारों की फौज बढऩे लगी। देखते ही देखते लगभग 10 मिनट में पूरी गाड़ी क्या छत तक भर गई। अब दस के बजाय गाड़ी में लगभग 25 सवारियां थी। गाड़ी जब चलने लगी तो एक पल तो हमें लगा हम चुनाव प्रसार वाली गाड़ी में तो नहीं बैठ गऐ, तभी परीक्षा का ध्यान आया तो हम बेरोजगारी वाली गाड़ी में सवार थे। गाड़ी में परीक्षा से संबधित कई बाते होती रही कोई सेन्टर को लेकर परेशान था, तो कोई रोल नबंर को। इस परीक्षा में कई लोगों के पास दो-दो अडमिट कार्ड आऐ थे।
कई के पास अडमिट कार्ड होने के बावजूद परीक्षा लिस्ट में दूर-दूर तक उनका नाम नहीं था। अत: गैरखेत पहुंचने के बाद सभी लोग उस स्कूल के सामने उतर गऐ। जिसमें हमने थोड़ी देर बाद परीक्षा देनी थी। अभी परीक्षा में लगभग दो घंटे शेष थे तो मै हाथ-मुहं धोने चले गऐ। दो-तीन युवक तो गाड़ी से उतरने के बाद मेरे साथ ऐसे घुल मिल गऐ, मानों बचपन के दोस्त हो। वैसे ऊपर वाला ही एक जैसे लागों को मिला ही देता है, वो भी बेरोजगार हम भी बेरोजगार।
बाजार से स्कूल काफी दूर गांव में था इसलिए वहां एकांत दुकाने की थी। अब हम चार लोग एक दुकान में नाश्मा करने चल दिए। दुकानदार काफी बुर्जुग थे। मैने कहां बूबू कुछ खानु को मिलेगा।
तो बूबू का जबाब था हां नाती चाय है समोसे और छोले है, बताओं क्या खओंगे?
मैने पूछा छोले-समोसे कैसे दे रहे हो
तो बूबू बोले नाती 10 रूपया प्लेट।
मैं बोला बूबू थोड़ा मंहगा लग रहा है।
बूबू बोले नाती 10 रूपये आजकल क्या मिलता है?
मैंने कहां बूबू बात तो आप सही कर रहे हो कि दस रूपए में क्या मिलता है। अब भूख तो लगी ही थी मैने बूबू को चार प्लेट छोले का ऑडर दे दिया क्योंकि हम चार लोग वहां बैठे थे।
बूबू ने चार प्लेट लगायी और हम लोग खाने लगे।
खाते-खाते मुझे मजाक सूजी तो मैने कहा बूबू, दस रूपऐ का प्लेट आज हमारे ही लिए है या आम जनता के लिए भी
इतना कहते ही बूबू थोड़ा झल्लाकर बोले…. नाती ये सबके लिए एक समान है, भला हम तुम्हें क्यों ठगेगें। हम पहाड़ी आदमी बेईमानी वाला काम नही करते नाती।
वैसे भी पहाड़ के लोग सीधे-सीधे होते है। छोले-समोसे खाने के बाद हम लोग स्कूल के सामने वाले मैदान पर बैठ गऐ और धूप का आन्नद लेने लगे। थोड़ी बहुत परीक्षा की भी बाते होने लगी। खूव हंसी मजाक चलती रही। बातों-बातों एक बोला यार इन परीक्षाओं में पहजले से ही सेटिग रहती है तो उसी बीच दूसरा बोला हम तो वीडीओं क्या ओडीयो भी नहीं बन पायेगें। ययमैन कहां भाई इतनी दूर आकर क्यों हताश हो रहा हैे। मेहनत कर निकल जाऐगाा। फिर दो-चार परवचन भी सुनाऐ।
अब पेपर से संबधित बाते होने लगी तो एक बोला जिन लोगों का जुगाड़ होता है उसी बीच एक युवक बोला भाई इसका भी तोड़ है मेरे पास हम सभी एक साथ बोले क्या–
तो वह बोला कि पेपर में चार के बजाय पांच विकल्प देने चाहिए।
चार म ें कोई एक तो सही होगा ही लेकिन पांचवे विकल्प में लिखा हो अगर आप यह प्रश्न छोड़ते है तो पांचवें पर निशान लगाऐ इस प्रकार ब्लैक कापी छोडऩे वाले पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन करे क्या मंत्री भी उनके है संत्री भी।
बातचित के दौरान थोड़ा समय कट गया तो मैने कहा चलों सीट तो देख आते है, क्योंकि मैं कुछ ज्यादा ही वहमी था कि अगर वहां हमारी सीट नी तो वैसे भी परीक्षा से पहले ऐसी हडबड़ाहट होती ही है। तो लम्बी लिस्ट देखने के बाद एक स्थान पर हमारा भी नंबर दिख गया तब जाकर थोड़ी मन में शंति हुूई बस थोड़ी देर में पीरक्षा शुरू हो गई। तो निर्देश थे- मोबाइल में पर्स बाहर ही रखे तो हमनें भी नियम का पालन किया। अपनी सीट ढूढऩी शुरू की पूरा कमरा छान मारा कही से कही तक मेरी सीट नजर नही आयाी। जब कमरे मं सभी लोग बैठ गऐ तो एक सीट छुटी थी सो खाली देखकर हम उसी पर बैठ गऐ। टेबल पर रोलनबरं देखा तो मेरा ही था, इसलिए अब निश्चित हो गऐ ये मेरी ही जबह है। कामी और पेपर हाथ में आऐ तो बीडीओं बनने के ख्वाब देखने लबे। दो घंटे की परीक्षा में लगभग 80 सवाल हम भी कर के आ ही गऐ लेकिन ये पता नही था कितन सही है कितने गलत।
परीक्षा खत्म होने के बाद जब स़क पर खड़े हुए तो एक ही टैक्सी खड़ी थी। बेरोजगार खड़े थे लगभग 200 से ऊपर। इस दौरान 20-25 लोग उस टैक्सी में बैठ गऐ। मैं एक जगह खड़ा ये सब देख रहा था। मेरे बगल में दो-चार लड़के-लड़कियां पेपर मिला रही थ्े तो मैं सुन रहा था । पेपर मिलते हुहए उनसे बोलना शुरू हो गया। इसका उत्त्तर यें था उसका उत्तर वो था। इस तरह हम बोलते रहे। इसी बीच मैने कहां चलों पैदल चलते है, जहां से गाड़ी मिलेगी वही से बैठ जाऐगे। तो एक-एक करके सभी राजी हो गऐ। अब हम पांच लोग पैदल चलने लगे। तीन लड़कियों और दो लड़के। बातो -बातेां में एक-दूसरे से परिचय हुआ । कोई बोला मैं रामनगर से हू तो कोई जसुपर से और कोई हल्द्वानी से । अत: पैदल चलते हुए खूव हंसी मजाक चलती रही। उसी बीच एक जीप आकर चली गई लेकिन हममें से किसी ने उसे रोका तक नहीं बस चले जा रहे थे मस्ती में।
चलते हुए लगभग एक घंटा हो गया तो सभी लोग एक-दूसरे को कोसने लग गए। क्योंकि आगे के लिए फिर गाड़ी मिलना मुमकिन ही नहीं नामुमकिन था। थकते हारते जैसे-तैसे सड़क तक पहुच गऐ तो पांच बज चुके थे। गाड़ी के इंतेजार में रोड पर और भी लोग खड़े थे। एक-एक करके गाडिय़ा आती रही लेकिन सीट किसी में भी नही मिली। अब तो बाजार में धीरे-धीरे अंधेरा छाने लगा। सड़क के पास ही जागरण चल रहा था अत: मन बना रात में यही ठीर के सुबह हल्द्वानी निकल जाऐगे। इस बीच दो-तीन लड़के और मिल गऐ कुल मिलाकर हम सात लोग हो गऐ। अब तो सभी तैयार हो गऐ कि रातभर जागरण में रहेगे। सुबह होते ही सब अपने-अपने घरों को निकल जाऐगे। इस दा।ैरान सभी बोले चलो मंदिर चलते है रोड के किनारे ही भुमिया देव का मंदिर था। सड़क और गांव के बीच में बसे इस मंदिर कस सुन्दर दृश्य मन मोह रहा था। हम लोग मंदिर में दर्शन को चले गऐ।
मंदिर में दर्शन करने के बाद जैसे ही हम लौट रहे थे, तो एक 10-20 साल की लड़की आयी, तभी वह बोली चलो भैया सब लोग हमारे घर पर रहोगों। उसकी बाते सुनकर थोड़ा अजीब लगा भला इतनी जल्दी कोई किसी पर कैसे विश्वास कर लेगा वो भी 21 वी सदी में, ऊपर से अनजान लोग। उस लड़की के बार-बार कहने के बाद हम लोगो ने उनके ही यहां रहने का निर्णय लिया। बस थोड़ी दूर पर उनका घर था। घर पहुंचने के बाद उसकी मां से परिचय हुआ। काफी साफ-सुथरा घर था उन शांति पहाडिय़ो के बीच एक शांत बाजार मासी में। थोड़ी बातचित के बाद सभी ने जागरण में जाने का निर्णय लिया। भंडारे में खाना खाने के बाद हम थोड़ी देर में हम दो लोग उनके घर में वापस इा गये। फिर बतियाने लग गये बातों-बातों में ऐसा लगा जैसी वह मेरी मां की छोटी बहन हो। उस मासी के बाजार की मॉसी थी। उसने बताया कि इससे पहले भी कई लोगों को गाड़ी नहीं मिलने के कारण वह अपने घर में बुलाकर लायी थी। वैसे भी वह हमारी लिए कोई फरिश्ते से मि नहीं थी। स्वाभावमें भी काफी शांत थी मासी की मासी। मासी ने बताया कि कुछ समय पहले की पति की मृत्यु हो चुकह है। उनके बारे में जानकर काफी दु:ख हुआ । फिर एकटक सोचता रहा कि कैसे पालती होगी। यह अपना परिवार इस मंहगाई के जमाने में। हम तो भगवान से प्रार्थना के अलावा उसकी कुछ भी मदद नहीं कर सकते थे। सुबह उठने के लिए हम लोगों ने चार बजे का अलार्म सेट कर दिया था। बिस्तरे के अंदर जाने के बाद ऐसी नींद आयी कि पता नही चला कब चार बज गए। मोबाइल का अलार्म बोलने लग गया उठो जागों।
एक एक करके सभी लोग जाग गये। हाथ-तुहं धोंने के बाद हम सभी सात के सात लोग तैयार हो गए। थोड़ी देर में वही छोटी लड़की चाय बनाकर ले आयी बोली भैया चास पीके ही जाओगे। चाय पीने के बाद हम लोग बस स्टैड की तरफ चल दिए। बस स्टैड पर रामनगर जाने वाली बस लगी थी, तो सभी लोग बस में बैठ गए। लेकिन मैं बाहर ही खड़ा रहा, साथियों ने पूछा बाहर क्यों खड़े हो अंदर आओं। मैने कहा में हल्द्वानी वाली बस में जाऊंगा। कहां उल्टा बांट बरेली घुमुगां। पहले रामनगर फिर हल्द्वानी। इसमें अच्छा सीधे हल्द्वानी चले जाऊगां । थोड़ी देर बाद रामनगर वाली बस चली गई तो एक दिन कि साथियों से बिछडऩे का दुख भी हुआ। फिर मैं अपने आप में बड़बड़ाया जिंदगी में कई लोग मिलते है कई बिछड़ते है।
फिर थोड़ी देर में उसी स्थान पर एक बस आकर रूकी बोर्ड देखते ही में बस में चढच़् गया था। लिखा था रानीखेत हल्द्वानी । अब मेरा मासी से निकलना शुरू हुआ था। आंखों में एक ही तस्वीर नजर आ रही थी वह चारों तरफ पहाडिय़ों से घिरा हुआ बाजार और उस बाजार में मांसी की मासी जैसे लोग।
वाह….. धन्या हो गया। प्रकृति का इतना सुन्दर मनमोहक रूप देख के। धीरे-धीरे बस आगे बढऩ लगी मांसी बाजार यानी मॉसी का घर आंखों से ओझल होने लगा। इस लंबे सफर के दौरान में चुपचाप सीट पर ही नींद का आंनद लेने लगा। ज ब आंखे खुली तो रानीखेत आ चुके था। गाड़ी चाले चिल्ला रहे थे। हल्द्वानी-हल्द्वानी…..
एक-एक करके सवारी बैठने लगी। तभी अचानक हमारे पुराने गुरू जी ने हाथ में बैंग लिए बस के अन्दर प्रवेश किया । मुझे अपने आंखों पर भरोसा नहीं हुआ, वे सीट पर बैठे भी नही थे कि मैं पताक से बोल पड़ा सर नमस्ते। वो बोले अरे नमस्ते-नमस्ते….. तुम कहा जा रहे हो।
मैं बोला सर वीडाओं बने आया था कल गाड़ी नहीं मिलने की वजह से वही रूक गया।
फिर बोले तो परीक्षा कैसे रही?
मैं बाला सर ठीक ही रही लेकिन उतनी भी ठीक नही रही ।
बोले कहा सर ठीक ही रही लेकिन उतनी भी ठीक नहीं रही।
बोले और क्या चल रहा है काम धंधा?
मैंने कहा सर में हल्द्वानी में एक राष्ट्रीय अखबार में कार्यरत हूॅं
बोले बहुत अच्छा, कुछ न कुछ करना चाहिए
फिर बोले कितना समय हो गया बालक घर नहीं गए।
मै बोला सर यही छ महीन करीबन।
फिर यूं ही बातों-बातों हम लोग कग अपने अतीत में खे गए पता ही नहीं चला
जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था, तब गुरूजी नये-नये हमारे विद्यालय में आऐ थे।
उन्हें हमे हिन्दी पढ़ाई थी। इनके पढ़ाने का ढग़ बड़ा गजब का था। आज भी याद है कि जब हमें वे उार याद नहीं होने पर कैसे डाटते थे। कभी-कभी तो हाथों में डंडा भी मारते थे, लेकिन फिर भी पढऩे में मजा आता था। आज के समय में अगर कोई टीचर अगर बच्चे को कोई सजा भी देता है तो तुरंत कार्रवाई हो जाऐगी। पता नही हमारे देश में कैसे-कैसे कानून आ गए है। तब हम लोग इसे गुरूजी का प्रसाद कहते थे। आज वही प्रसाद गुरूओं के लिए गले की फांस बन गई है।
क्या दिन थे वो भी, कांच की दावत में स्याही, एक फाउन्टेन प ेन से लिखना, इस पेन से लिखावट भी इतनी सुन्दर होती थी कि जिन्हें मैं शव्दों में बया नही कर सकता धीरे-धीरे फाउन्टेन का जमाना गया। उसका स्थान पेंन ने ले लिया अब और दुनिया बदल रही है, कुछ समय बाद पेंन की जगह लैपटॉप होगा। उस समय स्कूल जाने के अलावा हम दूसरा काम भी करते थे। लेकिन कभी भविष्य के बारे में सोचा नही था। कि हम हिंदी पढ़ते हुए एक राष्ट्रीय हिंदी अखबार में काम करेंगे।
बातचित आगे बढ़ी तो फिर मैने अपने और गुरूजनों का हाल चाल पूछा।
गुरूजी ने एक गहरी सांस भरते हुए कहा बाकि साथ वाले सभी लोगों का रिटायर्ड हो गऐ है। उनके भी अभी दो साल और बचे है।
वैसे जिस तरह सभी गुरूजन हमें समाज को सुधारने के उपदेश देते थे, शायद ठीक उनके उपदेशों का पालन हमने कर लिया था इसलिए भगवान ने हमें मीडिया जॉब दी। जिससे हम भी आए दिन कुछ न कुछ लिख के समाज को सुधारने का प्रयास करते रहते है।
फिर बातों-बातों में मंहगाई पर बहस छीड़ गई गुरूजी बोले आज की मंहगाई ने तो जीना बुरा हाल कर दिया और ऊपर से बेरोजगारी। इस स्थिति में गरीब आदमी दो वक्त की रोटी कैसे खायेगा। पहले चार आने का जमाना था आज एक रूपया तो थ्या 100 रूपये में भी पुरी चीज नही मिल रही है। बाते करते हुए कब सफर कटा की पता ही न चला। जब हम वीरभट्टी के पास पहुंचे तो बस वाले ने बस साईट में खड़ी कर दी। और बोला खानावाना खा लो। गुरू जी बोले जीवन चाय पिने चले। मैं तो इस मौके के इंतेजार में था, कि कब गुरूजी के साथ ए कप चाय पी जाय।
वैसे सच कहूं तो आज हमने गुरूजी के साथ चाय तो क्या पानी तक नहीं पिया था। आज लगभग दस साल बाद ये मौका मिला था। क्योकि गुरूजी ने हमें आठवीं कक्षा में 2002 में पढ़ाया था । तब से आज 2012 में हम उनके साथ बैठ के चाय पिने वाले थे। बस से बाहर उतरने के बाद मैं सामने नल पर मुंह-हाथ धोने चले गया। फिर चाय की दुकान पर आ के, चाय वाले को ऑडर देते हुए बोला भैया दो चाय बना दो अच्छी सी। उसके बाद मैने दो पकौड़ी बोली तो गुरूजी ने वाले-नही जीवन मैं नही लूगंा मेरे व्रत चले है। तो हमने फिर एक ही प्लेट बोल दी। हम दोनों गुरू-चेले चाय का मजा लेने लगे। कितना सुहाना दिन था यह मेरी जिंदगी का उस गुनगुनी धूप में बैठे हम दोनों अतीत में खोये चाय की चुस्कियों का मजा ले रहे थे। ऐसा वक्त आज की भागमभाग भरी जिंदगी में कहा मिलता है।
आज पड़ोसी को पड़ोसी की खबर तक नहीं रहती पहले जमाने में लोग दिन तो क्या रात में भी घंटों पड़ोसियों के साथ बतियाते रहते थे। उनक दुख-सुख में शामिल होते थे। लेकिन आज तो दुख-सुख में शामिल होना तो दूर की बात है। अगर हमारे पड़ोसी दिन में एक बार झांक भी देते तो उतना हमारे कलए काफी था। चलो आज के दौर में इन बातों में क्या रखा है। चाय पकौड़ी खाने के बाद हम गुरू-चेले बस की तरफ बढ़ गए। और अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए। फिर बस चल दी अपने गन्तव्य की ओर ऊची-नीची, टेडी मेड़ी पहाडिय़ों धीरे-धीरे उतरती हुई मैदान की तरफ यानी हल्द्वानी स्टेशन।
काठगोदाम आते ही शहर में आने का अहसास हो गया। जिस धूप की जरूरत हमें रानीखेत में हो रही थी। वो यहां आकर हमारे लिए गर्मी ला रही थी, फिर भी ज्यादा गर्मी नहीं थी क्योंकि अक्टूबर का महीना चल रहा था। बस के तिकोनिया पर पहुचते ही मैने परिचालक से रूकने का आग्रह किया। परिचालक के सीटी बजाते ही चालक ने तिकोनियां चौराहे पर बस रोक दी। फिर हमने गुरूजी की ओर देखते हुए विदाई ली और कहा कभी मौका तिकोनियां चौहारे पर बस रोक दी। फिर हमने गुरूजी की ओर देखते हुए विदाई ली और कहा कभी मौका मिले तो जरूर आइयेगा सर। गुरूजी ने सिर हिलाते हुए हामी भरी। इस तरह गुरूजी से हमने विदाई ली। फिर धीरे-धीरे कदमों से अपने कमरे की ओर निकल पड़े। यें थी मेरी मासी यात्रा इस यात्रा के दौरान एक ओर जहां उत्तराखंड के बेरोजगारों का निराश चेहरा देखा वही दूसरी ओर मासी में प्रकतिक के सुंदर मनमोहक रूप और मांसी का मासी जैसी संघर्षशील, मेहनती औरत जो हर दिन अपनी रोजी रोटी के लिए प्रकति के साथ संघर्ष करती है। वाह धन्य हो गया मैं प्रकति का यह रूप देख के धन्य हो उत्तराखंड , धन्य हो यहां की देवभूमि। इस भूमि के वीरों को मेरा सत्-सत् नमन, कोटि-कोटि प्रणाम।
जीवन राज