ग़ज़ल – कोई हसरत उफ़ान तक आई
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बात दिल की जुबान तक आई ।
कोई हसरत उफ़ान तक आई ।।
मैं नहीं बन्द कर रहा कोटा ।
यह बहस संविधान तक आई ।।
हौसले फिर जले सवर्णो के ।
रोशनी आसमान तक आई ।।
फायदा क्या मिला हुकूमत से ।
बस नसीहत लगान तक आयी ।।
मिटती हस्ती को देखता हूँ मैं ।
आंख जब भी रुझान तक आई ।।
यह नदी इंतकाम की खातिर ।
आज हद के निशान तक आई ।।
हक जो मांगा है,औरतों ने कभी ।
रोज चर्चा कुरान तक आई ।।
बूंद भर ही सही मगर स्याही ।
तेरे झूठे गुमान तक आई ।।
तीर बेशक नही चला लेकिन ।
एक उगली कमान तक आई ।।
फंस गई जाल में वही चिड़िया ।
जो थी लम्बी उड़ान तक आई ।।
जुर्म पकड़ा गया है फिर उसका ।
खोज ऊंचे मचान तक आई ।।
खूब बारूद का सिला लेकर ।
कोई आफ़त मकान तक आई ।।
नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित