अपनी अपनी छुट्टियाँ
वैसे तो परीक्षा खत्म हुए लगभग महीना हो गया था, किन्तु रिजल्ट आने तक पता नहीं क्यों बच्चे इन दिनों को छुट्टियों के दिन मानने को तैयार ही नहीं थे। ऐसा लगता था मानों रिजल्ट का आना ही गर्मी की छुट्टियों की घोषणा करता है।
आज 30 अप्रैल है। प्रमोद अपनी पूरी मित्र मंडली के साथ स्कूल की ओर जा रहा था। सबके सब ऐसे उत्साह में थे, मानो सिपाही किला जीतने जा रहे हों। यह उत्साह उन सबकी बातों में फूट-फूट कर बाहर आ रहा था। गर्मी की छुट्टियों को लेकर सबकी अपनी-अपनी योजनाएॅं थी और जल्दी से जल्दी वे सब उन्हें पूरी करना चाहते थे। बातों-बातों में स्कूल आ गया और वह क्षण भी आ गया जब प्रिंसिपल साहब ने परीक्षा परिणामों की घोषणा की।
लगभग पूरी टीम प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी। वे सब खुशी से पागल हुए जा रहे थे। कभी वे एक -दूसरे से हाथ मिलाते, कभी गले मिलते, जो बच्चे मिठाई लेकर आए थे, वे एक -दूसरे का मुॅंह भी मीठा करा रहे थे। वापसी में पहले रिजल्ट की चर्चा चल रही थी।
अपूर्वा बोली-’’ मुझे उम्मीद थी कम से कम 85 प्रतिशत नम्बर तो आएॅंगे ही, पता नहीं कहाॅं गड़बड़ हुई, मैं तो 80 प्रतिशत पर ही सिमट गई।’’
बुलबुल बोली- ’’ सामने तो दिख रहा है गणित ने तेरा रिजल्ट बिगाड़ा है। वैसे गणित और अंग्रेजी में मेरे नंबर भी बहुत कम हैं लेकिन मेरा परसेन्टेज बहुत अच्छा रहा। मैंने जितना सोचा था उससे भी अच्छा!’’
तेजस आष्चर्य से बोला-’’ गणित, अंग्रेजी में कम नंबर आने के बाद भी परसेन्टेज अच्छा रहा यह कैसे? कही कोई अलादीन का चिराग हाथ लग गया था क्या?’’
’’ हाॅ, ऐसा ही समझो!’’ बुलबुल खिलखिलाते हुए बोली ’’ परीक्षा से पहले मेरे दादाजी ने मुझे एक बात कही थी कि अकसर विद्यार्थी हिन्दी, संस्कृत जैसे विषयों को बहुत महत्व नहीं देते हैं और अपेक्षाकृत कठिन लगने वाले गणित, अंग्रेजी एवं विज्ञान को पूरा समय देते रहते हैं। यदि इन आसान विषयों को भी थोड़ा अधिक समय देकर गंभीरता से लें तो हमारा प्रतिशत बढ़ाने में यही विषय सहायक होते हैं। मैंने यही किया और सचमुच इन्हीं विषयों में मुझे बहुत अच्छे अंक मिले जिससें में 85 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त कर सकी।’’
सभी को एक बात का सबसे अधिक आश्चर्य हो रहा था कि कक्षा में प्रथम और द्वितीय स्थान पर विमला और दिनेश ने कब्जा किया था। किसी को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि स्कूल के पीछे के खुले मैदान में बसी झोपड़ियों में रहने वाले ये दोनों बच्चे प्रमोद की मित्र मंडली को पीछे छोड़कर कैसे आगे निकल गए?
जहाॅं-तहाॅं से फटे हुए, मैले कपडे पहनने वाले ये बच्चे इस मंडली के दोस्त कभी नहीं बन पाए। घर पहुंचकर सब बच्चे सीधे बुलबुल के दादाजी के पास पहुंचे। दादाजी श्री विजय शर्मा एक बड़ी बैंक के सामुदायिक सेवा विभाग के अधिकारी है। बाल मंडली को वे रोज शाम को अच्छी- अच्छी कहानियाॅं सुनाते हैं इसलिए मोहल्ले भर के बच्चे उन्ही के आस पास मण्डराते रहते हैं। आज तो सबको अपना-अपना रिजल्ट सबसे पहले दादाजी को सुनाना था इसलिए सब झूम ही गए उन पर। जैसे-तैसे दादाजी ने प्यार से सबको बैठाया और क्रमशः सबके परिणाम देखे। विमला और दिनेश के कक्षा में प्रथम और द्वितीय आने की बात सुनकर वे शेष परिणाम से भी ज्यादा प्रसन्न हुए।
’’ दादाजी ! उन मैले – कुचैले बच्चों की सफलता से आपको इतनी खुशी हो रही है?’’ बुलबुल की आवाज में ईर्ष्या का भाव स्पष्ट झलक रहा था। आखिरकार वे उसी के दादाजी थे। दादाजी सब समझ गए, प्यार से उसे गोद में बैठाते हुए बोले- ’’हमारी रानी बिटिया नाराज हो गई लगता है। बेटे उन दोनों की सफलता ने यह तो सिद्ध कर ही दिया है कि उन दोनों ने तुम सबसे ज्यादा मेहनत की है। एक बात और है उन दोनों ने यह मेहनत किन परिस्थितियों में की है यह तुम लोग नहीं जानते। हमारी बैंक के सहयोग से वहां बालिकाओं का एक संस्कार केन्द्र चलता है इसलिए मैं हमेशा उस बस्ती में जाता रहता हूँ। मुझे उन दोनों बच्चों की स्थिति बहुत अच्छी तरह पता है।’’
’’ अच्छा एक बात बताओं गर्मी की छुट्टियों में तुम सब क्या करने वाले हो किसी ने सोचा है?’’ अचानक शर्मा जी ने विषय बदल दिया-’’ हमने अभी तक तो कुछ नहीं सोचा दादाजी।’’
दादाजी बोले-’’चलो ठीक है। मैं तुम सबको आज शाम तक का समय देता हूँ सब सोचकर रखना छुट्टियों में तुम क्या करने वाले हो। शाम को हम सब मिलते हैं….. ?’’ एक स्वर में सब बच्चे चिल्लाए’’ बगीचे में।’’ दादाजी बोले-’’ नहीं बगीचे में तो हम सब रोज बैठते हैं आज हम सब एक साथ चलेंगे विमला और दिनेश के घर। भई उन दोनों को बधाई जो देना है और उनका मुंह मीठा कराने तो चलना ही है। वहीं अपनी मंडली जमाएॅंगे। और वहीं हम तय करेंगे कि छुट्टियाॅं कैसे बितानी हैं?‘‘
कुछ बच्चों के गले नहीं उतर रही थी शर्मा जी की यह योजना, लेकिन वे उनके आगे कुछ बोल नही पाए। विजय जी शर्मा का हॅंसमुख स्वभाव और बच्चों के साथ बच्चे बन जाना पूरी काॅलोनी के लिए चर्चा का विषय होता था। उन्होंने अपने इसी स्वभाव के कारण सब बच्चों के दिलों पर अधिकार कर रखा था। यही कारण था कि असहमत होते हुए भी किसी ने कुछ नहीं कहा इस विषय में ।
संध्या समय पूरी मंडली निकल पड़ी । सब दादाजी को घेरे चल रहे थे। दादाजी के हाथ में थैली में चार -पाॅंच मिठाई के पैकेट बच्चों में ऊर्जा का संचार कर रहे थे। हल्ला-गुल्ला मचाता यह दल जैसे ही झुग्गी बस्ती में प्रविष्ट हुआ वहाॅं के भी ढेरों बच्चे दादाजी -दादाजी कहते हुए उनके साथ हो लिए।
काॅलोनी के बच्चों को इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि यहाॅं के बच्चे उनके दादाजी को कैसे जानते हैं? दादाजी उन बच्चों को भी उतना ही प्यार से दुलार रहे थे जितना इन बच्चों को।
बस्ती की गंदगी ने काॅलोनी के बच्चों की हालत खराब कर दी थी। पास बहते नाले की दुर्गंध ने सांस लेना भी दूभर कर दिया था। तेजस तो बोल ही पड़ा -’’ यही जगह मिली थी दादाजी को घुमाने के लिए।’’
’’ अब लो मजे इस सुगंधित वातावरण के।’’ ऋषभ ने जलभुन कर कहा। कहते-कहते उसका पाॅंव छप से कीचड़ में जा पड़ा। दादाजी सब सुन- समझकर भी चुपचाप मुस्करा रहे थे। एक जगह प्लास्टिक की पुरानी चीजों का अंबार-सा लगा था। कई बोरों में पोलीथीन की थैलियाॅं भरी पड़ी थीं। आस-पास बनी दो झोपड़ियों की ओर मुॅंह करके शर्माजी ने आवाज लगाई- ’’ विमला… दीनू… अरे कहाॅं हो भई? आज तो तुमने कमाल का समाचार दिया है। ’’ दोनों उस छोटे से दरवाजे से दौड़ते हुए निकले और ’’ दादाजी-दादाजी’’ कहते हुए शर्मा जी से लिपट गए।
विमला बोली- ’’ देखिए दादाजी हमने आपसे किया वादा पूरा किया ना?’’
अब काॅलोनी के सारे बच्चों के आश्चर्य की बारी थी। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि उनके दादाजी उनकी कक्षा के इन दोनों बच्चों को कैसे जानते हैं और ये दोनो भी तो कैसे लिपट रहे हैं हमारे दादाजी से।
शर्मा जी ने मिठाई के डिब्बे निकालकर अपने हाथों से विमला और दीनू का मुॅंह मीठा कराया। फिर तो बस्ती के बच्चों और काॅलोनी के बच्चों ने भी मुॅंह मीठा किया। दादाजी ने बच्चों का संशय दूर करते हुए कहा-’’ बच्चों मैं यहाॅं के संस्कार केन्द्र में जब भी आता हूँ इन सारे बच्चों से मिलता हूँ। ये दोनों बच्चे प्रतिभाशाली थे इसलिए इनके माता-पिता से विशेष आग्रह कर, मैंने इनसे खूब पढ़कर प्रथम आने का वादा लिया था। दोनों बच्चों ने उस वादे को पूरा किया है।’’
तब तक सभी चैपालनुमा एक बड़े ओटले पर बैठ गए थे। दादाजी ने मुख्य विषय छेड़ते हुए कहा -’’ हाॅं तो बच्चों, अब सब एक-एक कर बताएंगे कि हमें गर्मी की छुट्टियों में क्या करना है?
सबसे पहले ऋषि ने कहा-’’ दादाजी मैंने तो पिताजी से जिद्द करके पहले ही स्वीमिंग पूल की फीस भरवा दी है और कल से ही तैरने जाना शुरू करूॅंगा।’’
तेजस बोला-’’ दादाजी मैं तो हार्दिक भैया के साथ काॅलोनी की ही स्वरांजलि संस्था में जाऊॅंगा। परन्तु मैं हार्दिक भैया की तरह तबला नहीं सीखूॅंगा, मैं तो सिन्थेसाइजर बजाना सीखूंगा। मेरे पापा मेरे लिए एक नया सिन्थेसाइजर खरीद कर ले आए हैं।’’
ऋषभ ने कहा-’’ दादाजी मैं और वैदिक भैया तो कम्प्यूटर सीखने जाने वाले हैं। एक बार कम्प्यूटर आ गया तो फिर उस पर ढेर सारे गेम खेलेंगे।’’
मिनी जो अब तक चुपचाप सबकी बातें सुन रही थी तपाक से बोली-’’ दादाजी मैं तो ब्रेक डाॅंस सीखने जा रही हूँ। फिर देखिए मैं अगले साल सारी काॅम्पिटीशन जीत कर बताऊॅंगी।’’
’’ और हमारी बुलबुल बिटिया की क्या प्लानिंग है?’’ दादाजी ने चुपचाप एक तरफ खड़ी बुलबुल से पूछा।
बुलबुल बोली-’’ दादाजी मैं तो मेहंदी क्लास जाकर मेहंदी बनाना सीखूंगी।’’
’’ बहुत अच्छा- बहुत अच्छा। अरे भई वाह आप सबने तो जोरदार योजना बनाई है। अरे! विमला और दीनू तुम दोनों ने तो बताया ही नहीं तुमने इन छुट्टियों के लिए क्या योजना बनाई है?
पहले तो दोनों के कुछ बोल ही नहीं फूट रहे थे, थोड़ा हिम्मत बंधाने पर विमला बोली-’’ दादाजी हमारे लिए तो सब दिन एक जैसे होते हैं क्या छुट्टी और क्या स्कूल। जानते हो प्रमोद भैया मेरी माॅं मुझे रोज पोलीथीन बीनने ले जाना चाहती थी। वह तो दादाजी ने हम दोनों की फीस की कहीं से व्यवस्था करवा दी और माॅं से यह वादा ले लिया था कि वे परीक्षा तक मुझे इस काम के लिए नहीं ले जाएॅंगी, तब जाकर माॅं मानी थी। लेकिन अब तो छुट्टियाॅं हो गई हैं, अब पढ़ाई भी नहीं है और न ही स्कूल रहेगा। पूरे दिन यानी सुबह छः बजे से उठकर निकलॅंूगी तो ष्षाम अंधेरा घिरने तक कचरे-कूड़े के ढेर से गंदे नालों से, ये पोलीथीन की थैलियाॅं ही बीनना है। यही मेरी छुट्टियों की योजना है।’’ दीनू की आॅंखें लगभग भीग गई थीं विमला की बात पूरी होते-होते । वह भी हिम्मत जुटाकर बोला- ’’ऋषि भैया ! मेरे पिताजी एक होटल में वेटर के रूप में काम करते हैं। मैं भी उसी होटल में चाय पिलाने और झूठे गिलास, बर्तन आदि धोने का काम करता था। विमला के साथ-साथ दादाजी ने मेरे पिताजी से भी वादा लिया था कि वे परीक्षा तक मुझे काम पर नहीं ले जाएॅंगे। अब छुट्टियाॅं होते ही मुझे उसी दुनिया में लौटना है जहाॅ आप सबकी तरह प्यार से मुझे दिनेश या दादाजी द्वारा दिए गए प्यार के नाम दीनू से नहीं पुकारा जाएगा। मैं वहां बारीक, चवन्नी, पावले और पता नहीं किन -किन नामों से पुकारा जाऊॅंगा। यही मेरी छुट्टियों की योजना है।’’
बत पूरी होते-होते तक लगभग सबकी आॅंखों की कोरें भीग गई थी। वहाॅं एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया था इतनी भीड़ होने के बावजूद भी। तब धीरे से दादाजी गला-खॅंखार कर बोले-’’ बच्चों! आप सब रास्ते भर मुझे कोस रहे थे ना कि मैं कहाॅं घूमाने ले आया आप सबको? सच पूछें तो यह मैंने सोच-समझकर ही किया था। मैं यह चाहता था कि तुम सब भी विमला और दीनू की इस परिस्थिति में की गई मेहनत को स्वीकारो। जानते हो इन दोनों के घरों में बिजली तक नहीं है। और लगभग ऐसी ही स्थितियों में जीते हैं तुम्हारे आसपास खड़े ये सारे बच्चे। भले ही देश में बाल श्रमिकों से काम लेना अपराध घोषित किया गया हो लेकिन सच तो अब भी वही है जो इन दोनों ने बयान किया है। तुम लोग पर्याप्त सुविधाओं को भोगने के बाद भी हमेशा अपने पापा-मम्मी से कुछ ना कुछ कमी की शिकायत करते रहते हो। क्या मैं गलत कह रहा हूँ?’’
ऋषभ बीच में ही बोल पड़ा -’’ दादाजी विवेक तो आज ही दूध में मिलाने वाले चाॅकलेटी पावडर के लिए मम्मी से नाराज हो रहा था।’’
दादाजी ने डपटा-’’ चुगली नहीं, चुगली नहीं। तुम सब अपने मन में विचार करो। अपनी-अपनी गलती ध्यान में आएगी। कभी इन बच्चों केे साथ मिलने आते रहा करो, तुम्हे पता लगेगा अभाव क्या होता है? दूध तो छोड़ो कई बार ये भूखे पेट केवल डाॅंट खाकर सो जाते हैं।’’
’’ अब तुम लोग ही निर्णय करो मैं तुम्हारे परीक्षा परिणाम से ज्यादा प्रसन्न विमला और दीनू के परिणाम से हुआ तो क्या गलत हुआ? ’’ बिलकुल नहीं!’’ सबने एक साथ कहा। तो बजाइए दोनों के नाम की ताली सब लोग ’’ कहते हुए दादाजी ने उन दानों को गले से लगा लिया।
फिर वे बोले-’’ बच्चों इन दोनों के लिए मैंने अपनी बैंक के सामुदायिक सेवा विभाग से छात्रवृत्ति मंजूर करवा ली है। अब ये दोनों न तो छुट्टियों में काम करेंगे न स्कूल के समय। हाॅ यदि आप सब चाहो तो पूरी छुट्टियों में हम सब एक साथ यहाॅं एक समय कैम्प में रोज इकठ्ठे हो सकते हैं। जिसमें हम गीत गाएॅंगे, कहानी सुनेंगे, चित्रकला, कढ़ाई, बुनाई मेहंदी सहित अन्य कई गतिविधियों में भाग लेंगे। कहिए क्या राय है आप सबकी?’’
’’हुर्रे….’’ का एक जोरदार शोर उठा जिसने दादाजी की बात का समर्थन किया था। बस्ती का ही एक भैया बोला- ’’ दादाजी इस बार की छुट्टियाॅं अपनी-अपनी नहीं रहेंगी, हम सब इसे बनाएंगे हमारी छुट्टियाॅं ।’’
दादाजी का बाल सुलभ ठहाका बच्चों की किलकारियों में खो गया था।
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