कविता : कुछ प्रकृति की ओर से…
तुम आधुनिकता से ,
उत्तर आधुनिकता
की ओर आ गए,
कर ली होड़
जीत ली बाज़ी
दे सकते हो मात नियति को,
फिर क्यों
कराह है, क्यों अश्रु जल से
पूरित हो ?
कर लिया है निर्माण
हर तरह का साँचा
टेस्ट ट्यूब बेबी हो या
मानव क्लोन !
कृतिम सांसें,
कृतिम अंग .
भौतिकता से
अटे पड़े हैं
तुम्हारे दिग
और जारी है विस्तार
ऐ मनुज !
कर लो निर्माण
एक और धरा की ,
ले आओ
एक सूर्य और,
चन्द्र भी कहीं से,
जब सब कुछ है
तुम्हारे हाथों में |
फिर तबाही से
क्यों विस्मित हो ?
असमय ही गर्त में
ले जायेगा
अंध दौड़ |
धरा ,
खाद की जगह लहू लेगी,
मौत की फसल खिलायेगी
अपने अंक में |
कौन श्रेष्ठ प्रकृति या पुरुष ?
— रजनी मल्होत्रा नैय्यर