आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों और समाधान
हाल ही में कश्मीर में आतंकी मुठभेड़ में सात अमरनाथ यात्रियों की मौत हो गई। रोज-ब-रोज वहां पुलिस पर पत्थरबाजी की जाती है। पिछले दिनों रैंसमवेयर हमले में भारतीय कम्प्यूटरों को काफी नुकसान पहुंचाया था। उधर, बंगाल भी गोरखालैंड की मांग को लेकर हिंसा की चपेट में है। इससे पहले सुकमा में माओवादियों ने दर्जनों सीआरपीएफ के जवानों को धोखे से मार दिया था। यह कुछ उदाहरण है जो देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़े हुए है। ये क्या साबित करते है ? यही कि इन चुनौतियों से निपटना भी चीन और पाकिस्तान से निपटने जैसा महत्वपूर्ण है।
किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा में बाहर के दुश्मनों से निपटना जितना जरुरी होता है इतना ही आवश्यक है आंतरिक चुनौतियों से निपटना। एक राष्ट्र राज्य तभी समक्ष बनता है जब बाह्य के साथ आंतरिक सुरक्षा को भी पुख्ता बनाता है। बात भारत जैसे देश की हो तो यहां आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियां काफी प्रबल है। आंतरिक सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा का एक अनिवार्य अंग है। यह कानून व्यवस्था, लोगों की संपत्ति सुरक्षा तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता से जुड़ा हुआ है। लोगों के मौलिक अधिकार और मानव अधिकार सुरक्षित रखने के लिए भी आंतरिक सुरक्षा का मजबूत होना जरुरी है। वर्तमान में आतंकवाद, नक्सलवाद, शत्रुवाद और भ्रष्टाचार देश के लिए गंभीर चुनौतियां है। भारत में आतंकवादी गतिविधियां, नृजातीय संघर्ष, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिक दंगे, कश्मीर समस्या आदि आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़े खतरे के रुप में सामने आये है। लेकिन इस ओर जितने प्रयास किये जाने की जरुरत थी वह वर्तमान सरकार भी करने में असफल रही है। इसलिये सवाल उठता है कि आंतरिक सुरक्षा को पुख्ता व मजबूत बनाये जाने के लिए सरकार द्वारा किये गये प्रयास क्या है और वह कितने असरदार है। आंतरिक सुरक्षा को दुरूस्त करने के मार्ग में क्या बाधायें है और उनका समाधान कैसे संभव है तथा आंतरिक सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कितना अनिवार्य है।
किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा नीति तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य सामने रखकर बनायी जाती है- पहला देश की संप्रभुता की रक्षा करना, दूसरा क्षेत्रीय एकता और अखंडता बनाये रखना, तीसरा देश में आंतरिक शांति बनाये रखना। सच यह है कि स्वतंत्रता के बाद से ही भारत आंतरिक चुनौतियोें के मोर्चे पर कई समस्याओं से जूंझ रहा है। समाज एवं राष्ट्र विरोधी तत्वों द्वारा अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए संगठित रुप से अव्यवस्था और असंतुलन का माहौल निर्मित किया गया। आंतरिक सुरक्षा के कमजोर होने का मतलब है देश के लॉ एन ऑर्डर का कमजोर होना। यह विधि के शासन के समक्ष एक चुनौती है। इससे राष्ट्र की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी प्रभावित होता है। इसलिए यह जानना आवश्यक है कि आंतरिक सुरक्षा के प्रबंधन की क्या खामियां है। इस संदर्भ में अनेक बातें दिखायी देती है जो इस तरह है- पहली खामी है दीर्घकालिक नीतियों का अभाव होना। किसी भी समस्या के समाधान के लिए दीर्घकालिक नीति का रेखाकंन जरुरी है। फिर उसी के अनुसार वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखते हुए दीर्घकालिक नीतियां बनायी जाती है। लेकिन भारत सरकार के पास कश्मीर समस्या के लिए कोई दीर्घकालिक नीति नहीं है। इसी प्रकार माओवादी हिंसा से निपटने के लिए भी सरकार की कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं दिखायीं देती है। यह एक बड़ी खामी है। दूसरा खामी है अपेक्षित पुलिस सुधार का न होना। अधिकांश राज्यों में पुलिस पुरातन व्यवस्था के अनुपालन को मजबूर है। उसकी ट्रेनिंग से लेकर हथियार तक अत्याधुनिक नहीं होते।
गौरतलब है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में पुलिस सुधार को लेकर निर्देश दिया था जो यह आज तक संभव नही हो पाया है। केरल को छोड़कर किसी भी राज्य ने पुलिस सुधार की दिशा में सार्थक कदम नहीं उठाया है। तीसरी खामी यह है कि न्यायिक निर्देशों को लेकर केंद्र सरकार भी कोई ज्यादा सकारात्मक पहल नहीं करती दिखती। यहां तक केंद्र सरकार अभी तक दिल्ली पुलिस विधेयक को अंतिम रुप देने में भी विफल रही है। जबकि इस विधेयक का मसौदा एक दशक पहले ही तैयार किया चुका था। चौथी खामी है केंद्र राज्य संबंधों में सशक्त भागीदारी का अभाव। लॉ एन ऑर्डर को संभालने का अधिकार राज्य सरकार का है जबकि आतंकवाद व नक्सलवादी हिंसा इतनी हाईटेक हो गयी है कि उससे निपटने में राज्य सरकार इतनी सक्षम नहीं हो पाती। जबकि केंद्र तभी हस्तक्षेप करता है जब राज्य सरकार इस संदर्भ में लिखित आग्रह करती है। ऐसी परिस्थिति में आवश्यक कार्रवाही में विलंब होता है। अतः केंद्र राज्य संबंधों में नीतिगत जड़ता भी आंतरिक सुरक्षा के लिए घातक है। जो कि एक प्रमुख खामी है। पांचवी खामी यह कही जा सकती है कि समेकित आतंरिक सुरक्षा नीति का देश में अभाव है।
भारत में आंतरिक सुरक्षा से निपटने के लिए जो एक सशक्त नीति होनी चाहिए वो दिखायीं नही देती। हम आतंकवाद के मुद्दे पर जी-20 से लेकर हरेक अन्तरराष्ट्रीय मोर्चे पर बोलते तो है लेकिन खुद ही जीरो टाॅलरेंस के तहत काम नहीं कर पाते। उसके बाद फिर एक जटिल न्यायिक प्रक्रिया भी अपराधियों के हौंसले बुलंद करती है। आंतरिक सुरक्षा के कमजोर होने के पीछे यह ही सब खामियां है। अतः इन खामियों से निपटने की जरुरत है। हालांकि इस संदर्भ में सरकार ने प्रयास जरुर किये है लेकिन वे नाकाफी साबित हुए है। अतः इन सभी समस्याओं का जवाब इस बात में मिलेगा कि संबद्ध राज्य कानून और व्यवस्था को मजबूत करनी की अपनी क्षमता में सुधार करे। सामान्य लोकतांत्रिक राजनीतिक और विकासात्मक प्रक्रियाओं के पुनर्निर्माण में जुट जाये। राज्यों के सजग पुलिस बल जितना ही केंद्रीय बलों पर अपनी निर्भरता कम करेगे उतना ही अच्छा होगा।
आंतरिक सुरक्षा से निपटने के लिए आगे की राह के संदर्भ में विभिन्न सुझाव दिये जा सकते है। जो कि इस तरह है- पहला पुलिस व्यवस्था को समवर्ती सूची में शामिल किया जाना चाहिए। दूसरा राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के विवादित प्रावधानों में सुधार कर उसका क्रियान्वयन सूनिश्चित किया जाना चाहिए। तीसरा कश्मीर समस्या आतंकवाद और माओवाद से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजनाओं के साथ-साथ स्थायी तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। चौथा पुलिस सुधार की दिशा में राज्य सरकारों को कारगर कदम उठाना चाहिए तथा सुरक्षाबलों को बेहतर ट्रेनिंग देकर अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया जाना चाहिए। पांचवा साइबर सुरक्षा के लिए हर विभाग में विशेष सेल बनाये जाने के साथ-साथ आईटी अधिनियम में संशोधन कर सजा के सख्त प्रावधान किये जाने चाहिए। न्यायतंत्र को सक्रिय बनाने के लिए जजों को नियुक्ति और न्याय सुधार की प्रक्रिया को तीव्र किये जाने की आवश्यकता है। और प्रभावित क्षेत्रों में आम लोगों के पुर्नवास और विकास के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाने के लिए शांति योजनाएं चलायी जानी चाहिए। ताकि जनता भारतीय राज्य के प्रति लगाव महसूस करते हुए आगे बढ़ सके।
सार यही है कि भारत के सामने पारंपरिक भू-राजनीतिक खतरों से लेकर परोक्ष युद्ध के प्रसार के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों के खतरे भी मौजूद है। हाल के वर्षो में सुरक्षा खतरों में किस तरह का बदलाव आया है इसे समझा जा सकता है। आज पारंपरिक खतरों के अलावा आतंकवाद, साइबर हमला, नशीले पदार्थो और हथियारों की तस्करी, अवैध आव्रजन, मनी लोड्रिंग आदि की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। कश्मीर समस्या, पूर्वोत्तर राज्यों में उपद्रव, नक्सलवाद की चुनौती भी विकराल हुई है। हालांकि नक्सली हिंसा से निपटने के लिए वर्तमान सरकार द्वारा आठ सूत्रीय कार्ययोजना “समाधान” को अमल में लाया जा रहा है। इस तरह के उपाय तो सचमुच में अपनाये जाने की जरुरत है लेकिन क्या यह सही मायनों में फलीभूत हो पायेगा। “समाधान” जैसे एक्शन प्लान का परिणाम भविष्य के गर्भ में छुपा हुआ है। फिर भी इस संदर्भ में आशावादी रहने की जरुरत है। इन भू-राजनीतिक खतरों से निपटने के लिए कई मोर्चो पर जिम्मेदारी संभालने की आवश्यकता है। इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा ढांचे में उभरती सुरक्षा चुनौतियों पर विशेष ध्यान देना होगा।
आंतरिक सुरक्षा देश के सामने एक बड़ी चुनौती बनी हुई है तथा इससे निपटने के लिए केंद्र सरकारों और राज्यों सरकारों को मिलकर काम करनी की जरुरत है। सिर्फ किसी कानून से आंतरिक सुरक्षा में कदापि मजबूती नहीं लायी जा सकती। बल्कि पिछड़े इलाकों में सड़क, पानी, बिजली, स्वास्थ, शिक्षा आदि का विकास कर इन समस्याओं को सुलझाना होगा। तभी शांति बहाल हो सकती है। ध्यान रहे बाह्य शत्रु से ज्यादा खतरनाक आंतरिक दुश्मन होते है। इसलिये बाह्य सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रुपयों का हथियार खरीदना जितना जरूरी है उससे भी ज्यादा जरुरी है आंतरिक सुरक्षा से उबरने के लिए सक्षम उपाय करना। अतः इस दिशा में अविलंब सरकारी प्रयास तेज किये जाने की जरुरत है।