प्यासा सावन
जल बिन मीन सरीखा यह मन ।
यह मौसम के अलंकार सब ।
प्रियतम के साजो सिंगार सब ।
कजरी, मोर , पवन पुरवाई,
लगते हैं उर को प्रहार सब ।
उर में पीर विरह की बैठी,
कैसी बारिश ,कैसा सावन ।
जल बिन…………..
चहुँ दिशि मे फैली हरियाली ।
निज उपवन सींचे विधि माली।
सरस हो गये, मही गगन सब,
शुष्क निशा विरहा की काली ।
चक्रवाक सी हुई नायिका,
नदी पार है जिसका साजन ।
जल बिन………………..
सांय सांय कर रही बयारें।
गूँजी झींगुर की झंकारें ।
विरह नायिका,प्यासा चातक-
अपने पिय को रोज पुकारें-
खुले छोड़ रक्खे हैं ,प्रियतम!
निज विरही मन के वातायन ।
जल बिन……………………
©डा. दिवाकर दत्त त्रिपाठी