ऋषि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन क्यों किया?
ओ३म्
हमारे सनातनी बन्धुओं में मूर्तिपूजा सबसे प्रमुख अनुष्ठान है। शायद उन्हें यह भी पता नहीं है कि भारत में वा विश्व में मूर्तिपूजा का आरम्भ कब व किसने किया। जुबानी जमाखर्च करते हुए कोई भी यह कह देता है कि यह मूर्तिपूजा तो सनातन है। ऐसे लोगों को हमें लगता है कि सनातन शब्द का अर्थ भी पता नहीं होता। यदि मूर्तिपूजा सनातन है तो वह बतायें कि सबसे पुरानी मूर्ति किस देवता की पूजी जाती है। शायद वह राम व कृष्ण को जिन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है, उनको बतायेंगे। क्या मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगेश्वर कृष्ण सृष्टि के प्रथम दिन पैदा हुए थे और उसी दिन उनकी मूर्ति की पूजा आरम्भ हो गई थी? यदि ऐसा नहीं है तो मूर्तिपूजा सनातन कैसे हो सकती है? हम सब जानते हैं कि कृष्ण जी द्वापर में और श्री राम त्रेता युग में उत्पन्न हुए। कृष्ण को हुए पौराणिकों के ही अनुसार लगभग 5100 वर्ष हुए हैं। अतः श्री कृष्ण जी की मूर्तिपूजा सनातन अर्थात् सृष्टि की वर्तमान आयु 1.96 अरब वर्ष पुरानी कैसे हो सकती है? इसी प्रकार से दशरथ व श्री राम का समय त्रेता युग अर्थात् द्वापर की पूरी अवधि एवं 5100 वर्ष जोड़कर प्राप्त होता है। इसके अनुसार श्री राम 864000+5100=869100 वर्ष व इससे कुछ अधिक तो हो सकते हैं परन्तु 1,96 अरब वर्ष नहीं हो सकते। अतः मूर्तिपूजा के इतिहास को सनातन कहना असत्य सिद्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि मूर्तिपूजा जैनियों से चली है। महावीर स्वामी का काल अधिक से अधिक 2600 या इससे कुछ अधिक वर्ष ही पुराना है। इससे यह सिद्ध होता है कि हमारे सनातनी भाईयों में मूर्तिपूजा जैन मत के बाद विगत लगभग 2000 वर्षों में चली है। इससे पूर्व ईश्वर के निराकार स्वरूप का योगविधि से ध्यान तथा अग्निहोत्र यज्ञों के द्वारा ईश्वर की उपासना की जाती थी।
अब प्रश्न है कि मूर्तिपूजा है क्या? मूर्तिपूजा एक प्रकार से जड़ पदार्थों की पूजा है। इसके अन्तर्गत पाषाण या धातु की श्री राम व श्री कृष्ण आदि देवताओं के काल्पनिक चित्रों के अनुसार मूर्ति बनाकर उसको ईश्वर मान कर उन पर फूल, पत्र, फल, जल, दुग्ध आदि चढ़ाया जाता है और धूप आदि जला कर व मूर्ति की परिक्रमा को ही ईश्वर की पूजा मान लिया जाता है। बहुत से लोग वहां पर कुछ धन भी रख देते हैं और यह मानते हैं कि यह धन उन्होंने ईश्वर को भेंट किया है। होता यह है कि यह सभी उपयोग की वस्तुएं पुजारी जी की आय का साधन होती हैं। ईश्वर तो एक चेतन सत्ता है। वह सर्वज्ञ और शक्तिमान है। वह सर्वव्यापक, निराकार और सर्वान्तर्यामी है। वह हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी है। वह मनुष्य व सभी प्राणियों के सभी कामों को पूर्ण करने वाला भी है। यह गुण किसी भी जड़ मूर्तियों में नहीं है। ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए यह तरीका वा पद्धति भी बुद्धिसंगत सिद्ध नहीं होती। हमारे जीवित माता-पिता होते हैं तो उन्हें हम भोजन, वस्त्र, धन, सेवा, आज्ञा पालन, परोपकार व सद्कर्मों को करके प्रसन्न करते हैं। यही उनकी पूजा होती है। उनकी मृत्यु के बाद इन सभी कर्मों का करना उचित नहीं होता क्योंकि उनकी जीवात्मा शरीर छोड़कर अपने कर्मों के अनुसार अन्य प्राणी योनियों में चली जाती है अर्थात् उनका पुनर्जन्म हो जाता है जैसा कि इस जन्म में हुआ था। ईश्वर भी हमारे माता-पिता, आचार्य, उपदेशक व राजा के समान एक चेतन सत्ता है। हमें उसे प्रसन्न करना है। यही उसकी पूजा व सत्कार हो सकता है। यह पूजा शब्द ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के लिए प्रयोग में लाया जाता है। ईश्वर के निराकार होने के कारण माता-पिता के समान हम उसकी सेवा कर नहीं सकते। ईश्वर का शरीर व उदर नहीं होते, अतः उसे फल, फूल, अन्न, जल, वस्त्र, स्वर्ण व रजत धातुओं सहित धन की आवश्यकता ही नहीं है। उसे तो हमारे सत्य स्तुति व प्रार्थना वचनों की आवश्यकता है। ईश्वर की स्तुति व प्रशंसा करना हमारा कर्तव्य भी है। ईश्वर के हम पर असंख्य उपकार हैं। हम ईश्वर के उपकारों से कभी भी उऋण नहीं हो सकते। अतः ईश्वर के प्रति उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना के रूप में कृतज्ञता व्यक्त करना ही हमारा परम कर्तव्य व परमधर्म है। इसके साथ हमें सृष्टि का कर्ता, धर्ता और हर्ता होने के कारण उसकी वेदाज्ञाओं का पालन करना भी धर्म है। वेदों के आधार पर ही ऋषियों ने गृहस्थियों के लिए पंचमहायज्ञों का विधान किया है। इसका पालन व आचरण ही मनुष्य-धर्म व वैदिकधर्म है। अतः ऐतिहासिक महापुरुषों व विष्णु अथवा शिव आदि वेद वर्णित देवताओं जो कि ईश्वर के गुणवाचक नाम हैं, उनकी कल्पित मूर्तियां बना कर उनकी पूजा आदि करना निरर्थक व अनावश्यक है। वेदादि शास्त्रों में इसका कहीं विधान नहीं है। साधारण मनुष्यों द्वारा महाभारत काल के बाद कुछ ग्रन्थ बनाकर किन्हीं कारणों से मूर्तिपूजा का विधान कर देना स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसके लिए वेदप्रमाण, आप्तवचन या ज्ञान का आधार होना चाहिये जो कि हमारे पास नहीं है। इस विषय में कुतर्क करना भी उचित नहीं होता। प्रमाणिक ग्रन्थों के ही प्रमाण स्वीकार होते हैं। अप्रमाणिक, अमान्य व हजार-दो हजार वर्ष पुराने ग्रन्थों के प्रमाण स्वीकार नहीं होते। यह भी बता दें कि हमारे पास आज तक बाल्मीकि रामायण या महाभारत का ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिसमें इन महापुरुषों ने कहा हो कि मैं भगवान हूं और मनुष्य मेरी आकृति के समान छोटी व बड़ी मूर्ति बनाकर उसमें कथित मन्त्रों के अनुसार प्राण प्रतिष्ठा कर मेरी पूजा किया करें। यदि ऐसा होता तो फिर महर्षि पतंजलि को योगदर्शन की रचना करने की आवश्यकता नहीं थी और न ही सांख्य व वेदान्त दर्शन आदि की ही आवश्यकता थी। उपनिषदों की व वेदों की भी आवश्यकता उस स्थिति में शायद् नहीं थी।
ऋषि दयानन्द ने 14 वर्ष की अल्पायु में अपने शिवभक्त पिता कर्षनजी तिवारी के कहने पर शिवरात्रि का व्रत किया था। उन्हें शिवरात्रि की महत्ता की पुराण वर्णित कथा सुनाई गई थी। सायं नगर से बाहर एक शिवमन्दिर में उस दिन पिता व अन्य लोगों के साथ पूजापाठ करते हुए रात्रि 12 बजे के कुछ समय बाद जब सभी सो गये थे तो बालक दयानन्द ने देखा कि मन्दिर के भीतर बिलों से कुछ चूहे निकल आये हैं जो शिव की पिण्डी पर भक्तों द्वारा चढ़ायें गये अन्न आदि पदार्थों का भक्षण कर रहे थे। शिवलिंग पर चूहों को बेरोकटोक उछलकूद करते देखा तो उनके मन में प्रश्न व ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि यह शिवलिंग सर्वशक्तिमान चेतन सच्चे शिव का स्थानापन्न नहीं हो सकता। उनका तर्क था कि जो शिव अपने सिर पर से चूहों तक को भगा नहीं सकता तो वह सर्वशक्तिमान व अपने भक्तों का रक्षक कैसे हो सकता है अर्थात् कदापि नहीं हो सकता। उन्होंने अपने पिता को जगाया और उनसे मूर्तिपूजा की सत्यता पर अनेक प्रश्न किये परन्तु प्रौढ़ ब्राह्मण पिता अपने पुत्र के प्रश्नों का समाधान नहीं कर सके। जैसा बाल्यावस्था में प्रायः होता है, बालक दयानन्द का मूर्तिपूजा पर से विश्वास खण्डित हो गया। इस घटना से उनके मन में सच्चे शिव को जानने की जिज्ञासा का जन्म हुआ। वह 22 वर्ष की अवस्था में सत्य वा ज्ञान की खोज में घर से निकले और गुजरात सहित देश के सभी प्रमुख धार्मिक स्थानों वा तीर्थस्थलों का भ्रमण कर वहां उपस्थित ज्ञानी व योगियों से वार्तालाप कर जो ज्ञान मिला, उसे प्राप्त किया। इस क्रम में वह सच्चे योगी बन गये और मथुरा के गुरु विरजानन्द सरस्वती से संस्कृत आर्ष व्याकरण का अध्ययन कर सच्चे ज्ञानी भी बने। सच्चे ज्ञानी और योगी बनने से उनकी सभी भ्रान्तियां दूर हो गई और उन्हें मूर्तिपूजा की सच्चाई व निरर्थकता ज्ञात हो गई।
स्वामी दयानन्द ने देश की परतन्त्रता के कारणों पर विचार किया तो इसके मूल में उन्हें मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष व सभी प्रकार के अन्धविश्वास दृष्टिगोचर हुए। मूर्तिपूजा ही सभी प्रकार के अन्धविश्वासों व बुराईयों की जड़ है, इसका निश्चय उन्होंने अपने वेदों व अन्य सभी शास्त्रों के ज्ञान सहित तर्क व युक्ति से भी किया। सोमनाथ मन्दिर सहित देश के सहस्रों मन्दिरों का यवनों व मुस्लिम आक्रान्ताओं व राजाओं द्वारा ध्वंस का कारण अविद्या व मूर्तिपूजा ही सिद्ध होते हैं। यदि अविद्या का परिणाम मूर्तिपूजा न होती तो देश को विगत 5000 वर्षों में जो दुर्दिन देखने पड़े हैं, वह देखने न पड़ते। मूर्तिपूजा से देश में हुए हानिकारक प्रभाव का उल्लेख कर वह द्वारिका के रणछोड़ मन्दिर पर सन् 1857 में अंग्रेंजों द्वारा तोपों से किये गये आक्रमण का उल्लेख करते हुए बाघेरों की वीरता की प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि मन्दिर की मूर्ति किसी विधर्मी तो क्या किसी एक मक्खी की टांग भी नहीं तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण के सदृश्य कोई महापुरुष होता तो वह इन आततायी अंग्रेजों के धुर्रे उड़ा देता और यह भागते फिरते अर्थात् भारत छोड़कर चले जाते। इतनी बड़ी हानि और गुलामी झेलने के बाद भी मूर्तिपूजा का जारी रहना वस्तुत वेदज्ञान, शास्त्र और अपनी मेधा बुद्धि का अपमान ही है। मूर्तिपूजा से लाभ तो कोई होता नहीं, होता है तो केवल पुजारियों को होता है, भक्तों को तो 16 प्रकार के दोष लगते व हानियां होती हैं जिनका उल्लेख ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में किया है। सभी मूर्तिपूजकों को एक बार पूरा सत्यार्थप्रकाश एवं मुख्यतः ग्यारह से चौदहवें समुल्लासों को अवश्य पढ़ना चाहिये। जिन विद्वानों ने अतीत में ऐसा किया है उसके चमत्कारिक परिणाम हुए हैं। स्वामी सर्वदानन्द जी जैसे उच्च कोटि के विद्वान सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ही ऋषि दयानन्द भक्त और वैदिक धर्मीं बने थे। हमारा जीवन भी सत्यार्थप्रकाश पढ़कर ही बदला है। यह भी बता दें कि स्वामी दयानन्द ने काशी के आनन्दबाग में 16 नवम्बर, 1869 को 50 हजार लोगों की उपस्थिति में काशी के तीस से अधिक शीर्ष सनातनी विद्वानों के साथ मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ किया था। इस शास्त्रार्थ में हमारे सनातनी विद्वान मूर्तिपूजा विषयक एक भी वैदिक प्रमाण नहीं दे सके थे जबकि स्वामी दयानन्द ने बाद में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखकर मूर्तिपूजा का सप्रमाण खण्डन किया। इस शास्त्रार्थ की गूंज भारतीय पत्र-पत्रिकाओं सहित इंग्लैण्ड में प्रोफेसर मैक्समूलर तक पहुंची थी जिन्होंने स्वामी दयानन्द के पक्ष को विजयी माना था। आज भी स्वामी दयानन्द जी के सभी तर्क व युक्तियां अकाट्य बने हुए हैं। यह सत्य और ईश्वरीय ज्ञान वेद की विजय है।
मूर्तिपूजकों के, एक दो नहीं, हजारों इष्टदेव हैं। इस कारण मूर्तिपूजक आपस में बंटे हुए हैं। यह एक प्रकार का सामाजिक विभाजन है जिसे हमारे सनातनी बंधु समझते नहीं हैं। एक निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सच्चिदानन्द ईश्वर की उपासना मनुष्यों को परस्पर संगठित और अन्धविश्वासों से मुक्त करती है और अनेक उपास्यदेवों की पूजा व उपासना उन्हें विखण्डित करती है। ईसाई और मुसलमानों का एक ही इष्ट देव हैं। हमारी परतन्त्रता का एक मुख्य कारण यही प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द का सन्देश है कि एक ही वेद वर्णित त्यि व शाश्वत् सर्वव्यापक व सर्वज्ञ ईश्वर ही सभी मनुष्यों का उपासनीय है अन्य कोई नहीं। उनके यह शब्द यथार्थ हैं कि मूर्तिपूजा ईश्वर प्राप्ति में सीढ़ी नहीं अपितु एक गहरी खाई के समान है जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक नष्ट हो जाता है। मूर्तिपूजा से ईश्वर की प्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं है। इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इस संक्षिप्त उल्लेख के साथ ही हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य