जनादेश का अपमान क्यों
नीतीश कुमार ने अपने फैसलों से एक बार फिर से बिहार की राजनीति में हलचल पैदा कर दी है। उन्होंने पिछले बुधवार की शाम को अचानक ही बिहार के मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर सभी को चौंका दिया। इतना ही नहीं बल्कि अगले ही सुबह अर्थात 27 जुलाई को भारतीय जनता पार्टी के साथ एक बार फिर से एनडीए की सरकार बनाकर उन्होंने सभी को हैरत में डाल दिया। बस अपने एक इस्तीफे से उन्होंने पिछले 20 महीनें से चले आ रहे मजबूरी के गठबंधन को बिखेर कर रख दिया है। इस्तीफे के तुरंत बाद मीडिया को संबोधित करते हुये उन्होंने सफाई दी और कहा कि ये उनकी अंतरात्मा की आवाज थी जिसे अनसुना करना उनके लिए संभव नहीं था। बड़ी ही चालाकी से उन्होंने मीडिया में अपनी मजबूरियां गिनवाई और गठबंधन टूटने का सारा ठिकड़ा लालू परिवार पर फोड़ दिया। नीतीश ने महागठबंधन के बिखराव के लिए परिस्थितियों को दोषी ठहराते हुये कहा कि परिस्थितियां ही ऐसी बन गई थी कि अब साथ चलना असंभव सा हो गया था और इसीलिए उन्होंने इस्तीफा देना जरूरी समझा। अपनी छवि बचाने के लिए नीतीश बार-बार कहते रहें कि उन्होंने गठबंधन के शर्तों को कभी नहीं तोड़ा है और वे महागठबंधन को बचाने की हरसंभव कोशिश करते रहें लेकिन बात नहीं बनी और नतीजा सबके सामने है।
महागठबंधन से अलग होने के बाद स्वयं पर लगनेवाले आरोपों से बचने के लिए नीतीश ने लालू एंड पार्टी पर ही हमला बोल दिया। खुद को पाक साफ बताते हुये उन्होंने कहा कि उनके द्वारा कई बार समय दिये जाने के बाद भी लालू और तेजस्वी ने अपने उपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर सफाई देना जरूरी नहीं समझा। और ऐसे में जब उनका सारा कमिटमेंट बिहार और बिहार की जनता के प्रति है तो वे भला भ्रष्टाचार को लेकर किसी भी तरह का समझौता कैसे कर सकते थे?
नीतीश कुमार के उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट है कि एक मंझे हुये खिलाड़ी की तरह इस बार भी वो सभी आरोपों से बचकर निकलना चाहते हैं। उन्होंने अपनी चालाकी से एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि प्रखर राजनेता की तरह सही समय पर अपने फायदे के लिए वो किसी को भी धोका देने की अपनी आदत से बाज नहीं आयेंगे। और सायद यही वजह है कि उनपर अक्सर अवसरवादी होने का आरोप लगता रहा है। वैसे उनके राजनैतिक इतिहास को खंगाला जाये तो सहज ही पता चलता है कि उनपर लगाये गए अवसरवादिता के ये तमाम आरोप सही हैं। और इसका ताजा उदाहरण है महागठबंधन से उनका अलग होना।
नीतीश कुमार ने एक बार फिर से समय के बहाव को देखते हुये अपनी कस्ती बदल ली है।इस बार उन्होंने तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपो को मुद्दा बनाकर अपनी ही सरकार का तख्ता पलट कर दिया है। उन्होंने बड़े ही चालाकी से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर घिरी कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल को चकमा देते हुये खुद को उनसे अलग कर लिया है। उनके इस निर्णय से देश की राजनीति में एक बार फिर से भूचाल आ गया है। जनता के बीच एक ईमानदार राजनीतिज्ञ वाली अपनी छवि को बरकरार रखने के लिए उन्होंने इस बार इस फैसले को अंजाम दिया है। महागठबंधन से अलग होकर नीतीश ने अपनी ही सरकार का सबसे अधिक बार तख्ता पलट करने का एक अभुतपूर्व रेकॉर्ड भी बना लिया है। इससे पहले भी अपनी छवि बचाने के चक्कर में वे एनडीए की सरकार गिरा चुके हैं। पर इस बार मामला कुछ और है। दरअसल धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एनडीए से अलग हुये नीतीश शुरू से ही लालू के साथ खुदको असहज महसुस कर रहे थे। अपने धुर विरोधी लालू और कांग्रेस के साथ महागठबंधन की सरकार बनाने के बाद से ही नीतीश बिहार में बढ़ते जंगलराज के आरोपों से चिंतित थे। ऐसे में तेजस्वी पर लगे कथित भ्रष्टाचार के आरोपों ने उन्हें इस बंधन से मुक्त होने का एक सही अवसर प्रदान कर दिया और फिर बिना किसी चूक के कोई भी अवसर गवाए बगैर उन्होंने महागठबंधन से खुद को अलग कर लिया। और यही कारण है कि उन्होंने गठबंधन के टूट के लिए किसी को दोष नहीं देने की बात कहकर राजनैतिक रूप से बिहार की परिपक्व जनता को साधने का प्रयास किया।
नीतीश कुमार एक दक्ष नेता हैं और वे हर हाल में अपने सुशासन बाबू की छवि को बरकरार रखना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी इसी छवि ने ही उन्हें पिछले बारह वर्षों से प्रदेश की गद्दी पर कायम रखा है। ऐसे में उनकी सरकार के दौरान सिवान के कुख्यात अपराधी शहाबुद्दीन का जेल से बाहर आना उनके आत्मसम्मान के लिए चुनौती बन गई था। नतीजतन बिहार में एकाएक बढ़ते अपराध के ग्राफ ने नीतीश कुमार को आरजेडी से संबध बनाए रखने को लेकर एक बार फिर से नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया था। और कहीं ना कहीं इन सब वजहों ने ही महागठबंधन को बिखेरने का काम किया है। पर चाहे जो हो, मगर नीतीश कुमार के इस निर्णय ने बिहार की भावनाओं को आहत किया है। उनकी अवसरवादी राजनीति के चलते बिहार की जनता के जनादेश का अपमान हुआ है। क्योंकि बिहार की जनता ने इस चुनाव में महागठबंधन के नाम पर ही आरजेडी को 80,कांग्रेस को 27 और जदयू को 70 सीटें देकर महागठबंधन में शामिल दलों को सरकार बनाने का जनादेश दिया था। किंतु अपनी व्मक्तिगत महत्वकांक्षा के लिए नीतीश कुमार ने उस जनादेश को ठोकर मारते हुये विपक्षी पार्टीयों के साथ मिलकर गठबंधन की नई सरकार बना ली। जो वास्तव में एक नीतिविरुद्ध कार्य है। और ऐसे कार्यों के लिए संविधान में दंडात्मक विधान होना चाहिये, जिससे कि कोई भी पार्टी व नेता अपने व्यक्तिगत लाभालाभ के लिए जनता द्वारा सुनाए गए जनादेश का उल्लंघन करने की हिम्मत ना करे।
वैसे अब चाहे जो भी हो मगर महागठबंधन के इस बिखराव ने नरेन्द्र मोदी को 2019 के आम चुनावों तक के लिए एक निर्विवादित राष्ट्रीय नेता के तौर पर स्थापित कर दिया है। साथ ही नीतीश कुमार के भाजपा से बिना शर्त हाथ मिलाने के बाद देश में एक कमजोर विपक्ष की सुगबुगाहट तेज हो गई है। ऐसे में आनेवाले समय में भी केन्द्र में एक सशक्त सरकार के साथ ही कमजोर व आधारहीन विपक्ष के गठन की संभावनाएं दिख रही हैं। पर भारत जैसे एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में लोकतांत्र को सशक्त बनाए रखने के लिए एक स्थिर सरकार के साथ ही एक बलिष्ठ विपक्ष की भी आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता है। किंतु देश के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में नेताओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षा देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था को बचाये रखने में कितना सफल होगा ये कह पाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि समय समय पर राजनेताओं के अवसरवाद पर टिकी हुई राजनीति के गिरते ग्राफ ने अब भारत की विशाल जनता को भी असंजस में डालना आरंभ कर दिया है कि आखिर संसदीय व्यवस्था के नाम पर नम्बर गेम वाले इस शासन व्यवस्था में उनके जनादेश का सम्मान कैसा होगा?
— मुकेश सिंह