“कुंडलिया”
घेरी क्षितिजी लालिमा, सूरज साँझ विहान
रे मन तुझसे क्या कहूँ, कली कली मुस्कान
कली कली मुस्कान, यही है शोभा नभ की
दादर है गतिमान, बढ़ाए चाह पथिक की
गौतम घिरती शाम, सुस्त चित विकल अमीरी
बढ़ पग अपने धाम, थकन अँखियों को घेरी॥
महातम मिश्र ‘गौतम’ गोरखपुरी