जीवात्मा क्या है तथा उसका स्वरूप?
ओ३म्
जीवात्मा के लिए जीव व आत्मा शब्दों का प्रयोग भी होता है। यह तीनों शब्द मनु ष्य में जो एक चेतन व संवेदनशील पदार्थ है, उसके लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। आत्मा के रहने से ही मनुष्य व अन्य प्राणी जीवित रहते है और उनकी मृत्यु तभी कहलाती है जब कि जीवात्मा शरीर को छोड़कर निकल जाता है। यह जीवात्मा क्या है व इसका उद्गम कैसे होता है? इसका उत्तर शास्त्र और विचार करने से जो मिलता है उसको प्रस्तुत करते हैं। संसार का नियम है कि कोई भी नया पदार्थ न तो बनाया ही जा सकता है और न ही बने हुए पदार्थ को नष्ट ही, अस्तित्व शून्य, किया जा सकता है। पदार्थ का रूप व स्वरूप परिवर्तन हुआ करता है, उसका पूर्ण अभाव नहीं होता है। जैसे मिट्टी से कई पदार्थ बनते हैं। इसकी ईंटे बनाकर गृह का निर्माण कर सकते हैं। मिट्टी से भवन की दीवार सहित मिट्टी के बर्तन व अनेक उपयोगी सामान बनाये जा सकते हैं। परन्तु अब हम ईंट, दीवार व बर्तनों को नष्ट करते हैं तो वह अपने मूल कारण मिट्टी के रूप में आ जाते हैं। मिट्टी भी मूल प्रकृति अर्थात् सत्, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति से बनी है। संसार के सभी पदार्थ इस मूल कारण प्रकृति से ही बने हैं। हमारा शरीर भी प्रकृति के अणु व परमाणुओं से ही बना है। इसी प्रकार हमारा आत्मा भी एक मूल पदार्थ है। यह किसी पदार्थ से नहीं बना है, अतः यह किसी भी कारण से कभी नष्ट नहीं हो सकता है। आत्मा किसी मूल पदार्थ का कार्य पदार्थ नहीं है। यह कारण व कार्य दोनों एक अर्थात् अपने कारण रूप व मूल रूप में ही रहता हैं। हां, जब सृष्टि उत्पन्न होती है तो परमात्मा सृष्टि के निर्माण की आरम्भ अवस्था में जब मूल प्रकृति में विक्षोभ व परिवर्तन करते हैं तो जो आरम्भिक पदार्थ महतत्व व पांच तन्मात्रायें आदि बनती हैं, उससे ब्रह्माण्ड की अनन्त आत्माओं के लिए सूक्ष्म शरीर बनाते हैं जो प्रलयावस्था पर्यन्त जीवात्मा के साथ रहते हैं। जब जीवात्मा का मनुष्य व अन्य प्राणियों के रूप में जन्म होता है तो जीवात्मा इस सूक्ष्म शरीर के साथ ही पिता-माता के शरीरों में प्रविष्ट होता है और कालान्तर में जब मृत्यु होती है तो आत्मा और यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से निकल जाता है। मृत्यु के समय शरीर से आत्मा व सूक्ष्म शरीर दोनों ही एक साथ निकलते हैं।
आत्मा का स्वरूप हमारे शास्त्रों में विस्तार से वर्णित है जो कि तर्क एवं युक्तियुक्त है। शास्त्रों के अनुसार जीवात्मा एक चेतन, सूक्ष्म, अल्प परिमाण, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ, आकार रहित, जन्म मरण धर्मा तथा सुख व दुःख को अनुभव करने वाला है। मनुष्य जो कर्म करता है, उन कर्मों का भोग मिलने तक उसके संस्कार आत्मा पर अंकित रहते हैं। जीवात्म अनादि है, अमर व अविनाशी है, यह शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि से जलता नहीं है, वायु से सूखता नहीं है और जल से गीला नहीं होता। शरीर के मर जाने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। जीवात्मा का अस्तित्व अनादि व अनुत्पन्न है अतः यह सदा बनेगा रहेगा। जीवात्मा की सत्ता बनी रहने के कारण इसे सत्य कहते हैं। असत्य उस काल्पनिक पदार्थ को कहते हैं कि जिसका अस्तित्व न हो परन्तु व्यवहार में उसका प्रयोग किया जाता हो। आत्मा का अस्तित्व असंदिग्ध रूप से विद्यमान है अतः आत्मा सत्य है। जीवित अवस्था में आत्मा की दो अवस्थायें होती हैं एक सुख व दूसरी दुःख की। सुख व दुःख की अनुभूमि होने से ही यह चेतन पदार्थ कहलाता है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र व किये गये शुभ व अशुभ कर्मों के फल भोगने में परतंत्र है। संसार में हम देखते हैं कि लोग परस्पर अच्छे व बुरे कर्मों वा व्यवहार का सेवन करते हैं। किसी मनुष्य का किसी के प्रति अच्छा या बुरा व्यवहार करना जीव की स्वतन्त्रता में आता है। परमात्मा उसे बुरा काम करने से दृणता से रोकता नहीं है। इसी कारण देश और समाज में लोग छोटे व बड़े अनेकानेक प्रकार के अपराध करते हैं। अपराध कर लेने के बाद उस जीव को उसके कर्मों का अच्छा या बुरा, सुख व दुख रूपी फल देना ईश्वर के हाथ में है। ईश्वर चेतन, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ व सच्चिदानन्द होने के कारण सभी जीवों के मानसिक, वाचिक एवं दैहिक कर्मों का साक्षी होता है। अतः वह अपने विधान के अनुसार जीवों को यथा समय उनका फल देता है। कोई भी जीवात्मा अपने किसी शुभ व अशुभ कर्म के फल से बच नहीं सकता। ईश्वर न्यायकारी ही नहीं आदर्श न्यायकारी है, अतः उसका न्याय भी आदर्श न्याय है। हमारे ऋषि मुनि इसका विचार करते हैं और इसका उल्लेख उनके बनायें ग्रन्थों में मिलता है। जीव का स्वरूप और उसके गुण, कर्म व स्वभाव कैसे हैं? इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के सप्तम समुल्लास में लिखा है कि जीव चेतनस्वरूप है। इसका स्वभाव पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है। जीव के सन्तानोत्पत्ति, उन का पालन, शिल्पविद्या आदि अच्छे–बुरे कर्म हैं।
न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शन निम्न दो सूत्र आते हैं। ‘इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनोलिंगमिति।।’ तथा ‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराः सुखदुःख इच्छाद्वेषौप्रयत्नाश्चात्मनोलिंगानि।।’ इनका अर्थ है कि (इच्छा) पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञान) विवेक, पहिचाना, ये गुण न्यायदर्शन व वैशेषिक दर्शन में तुल्य हैं, परन्तु वैशेषिक दर्शन में (प्राण) प्राणवायु को बाहर निकालना, (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख को मींचना, (उन्मेष) आंख को खोलना, (जीवन) प्राण का धारण करना, (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना, (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना, (अन्तर्विकार) भिन्न भिन्न क्षुधा, तृषा, हर्ष, शोकादियुक्त होना, ये जीवात्मा के गुण हैं। जीवात्मा के यह गुण परमात्मा में नहीं हैं। इन्हीं गुणों से आत्मा की प्रतीती करनी चाहिये। यह भी ध्यान रखना चाहिये ये गुण जड़ स्थूल पदार्थों में नहीं होते हैं। जब तक आत्मा देह व शरीर में होता है, तभी तक यह गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब यह गुण मृतक शरीर में नहीं रहते। जिस के होने से जो हों, और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान, इन दोनों के गुणों द्वारा होता है।
इसके साथ ही जीव के विषय में कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातें भी जान लेते हैं। जीव शाश्वत्, अविनाशी एवं नित्य पदार्थ है। ईश्वर भी नित्य है और सृष्टिकर्ता है। जीवों के पूर्व जन्मों के पाप व पुण्यों के दुःख व सुख रूपी फल देने के लिए ही ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है और ईश्वर ही इसका पालन करता है। मनुष्य योनि उभय योनि अर्थात् कर्म व भोग योनि दोनों है और अन्य पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि योनियां केवल भोग योनि है। परमात्मा ने मनुष्य को अन्य इन्द्रियों व सामर्थ्य के साथ एक बुद्धि जैसी सत्यासत्य का विवेचन करने वाली शक्ति बुद्धि दी है। इस बुद्धि से मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जान सकता है। वेद, दर्शन, उपनिषद व सत्यार्थपकाश आदि ग्रन्थ बतातें हैं कि जीवात्मा को मनुष्य जन्म पाप व पुण्यों के समान वा पुण्य कर्मों के अधिक होने पर मिलता है। मनुष्य योनि में जहां वह अपने पूर्व कर्मों के सुख-दुःख रूपी फल भोगता है वहीं नये शुभ व अशुभ कर्मों को करता भी है। यदि मनुष्य वेदों व वैदिक विचारधारा के सम्पर्क में आ जाये तो उसे अपने जीवन का उद्देश्य आसानी से समझ में आ जाता है और साथ ही उद्देश्य, जो कि मोक्ष व मुक्ति है, को प्राप्त करने के साधनों का ज्ञान भी हो जाता है। मनुष्य जन्म का उद्देश्य बुरे कर्मों का त्याग व शुभ कर्मों का अनुष्ठान है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर व जीवात्मा आदि पदार्थों के स्वरूप व संसार को अच्छी प्रकार से जानकर ईश्वर का ध्यान, स्तुति, प्रार्थना और उपासना आदि करते हुए तथा यज्ञादि शुभकर्मों को करते हुए ईश्वर साक्षात्कार करना है जिससे मनुष्य बुरी वासनाओं व बुरे कर्मों में प्रवृत्ति से बच जाता है और ईश्वर को प्राप्त होता है। समाधि ही मोक्ष का द्वार है जिससे मनुष्य जन्म व मरण के चक्र से लम्बी अवधि तक के लिए मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति योगी, ऋषि मुनि व विद्वानों को ही प्राप्त होती है। असत् कर्म करने वालों को, चाहे वह किसी भी मत को मानते हों, मोक्ष की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं है। वैदिक धर्म की शरण में आकर ही जीवन के स्वरूप को यथार्थ रूप में जानकर ही मनुष्य अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकता है।
हमने इस लेख में जीवात्मा के स्वरूप सहित उसके उद्देश्य व उसकी प्राप्ति की चर्चा की है। आशा है कि कुछ मित्रों को यह लेख लाभप्रद हो। इति ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य