जो रोज-रोज थकते हैं
जो कही बात को
बिना कहे कहते हैं
उत्तरा हवा की तरह
मडराते हुए
बन्दूक की गोली की तरह
धड़ाम..धड़ाम छूटते जाते हैं
फिर भी कोई राज नहीं खोलते
अपनी बेवशी का
कानाफूसी करने वाले
वे शहर के नये अजनबी
गांव के पढारू से जो रोज चिढ़ते हैं
वे इसी में
रोज-रोज थकते हैं
बड़ी जाति के होने का दम्भ
बड़ी कोठी वाले होने का अहंकार
जमाने की हर धडकन को ठेंगा दिखाते
रोज-रोज थकते हैं
कोल्हू के बैल की तरह
विवशताओं में भी पतझड़़
उगते सूरत की तरह
लालिमा लिए नई फसल
और फल का दलित साहित्य
जब भी वे पढ़ते हैं
रोज….रोज थकते हैं।
— अखिलेश आर्येन्दु