श्रावणी और रक्षा बन्धन पर्व
ओ३म्
हमारे देश में प्राचीन काल से ही अनेक पर्वों को मनाने की परम्परा रही है। नववर्षारम्भ पर्व भी इनमें से एक है जो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा भी एक वैदिक पर्व है। इस पर्व को क्यों मनाया जाता है? यह जानने के योग्य है। मनुष्य जीवन भौतिक पदार्थों से बने शरीर व चेतन तत्व आत्मा का संयोग है जिसे ईश्वर सम्पादित करते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अच्छे भोजन, आसन, प्राणायाम व व्यायाम की आवश्यकता होती है। आत्मा शरीर का स्वामी है। चेतन तत्व का गुण व स्वरूप ज्ञान प्राप्ति व कर्म करना होता है। आत्मा को ज्ञान से सम्पन्न करना और उसके अनुसार यज्ञादि कर्म करना ही इस श्रावणी पर्व का मुख्य उद्देश्य है। ज्ञान की प्राप्ति माता-पिता व आचार्य के प्रवचनों व उपदेशों से होती हैं। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय से भी मनुष्य ज्ञान को प्राप्त करना है। माता-पिता बचपन में और आचार्य गुरुकुलीय या विद्यालयीय शिक्षाकाल में ही शिक्षा देते हैं। शिक्षा समाप्त कर गृहस्थी होने के बाद भी आत्मा को ज्ञान की आवश्यकता रहती है जिसके लिए हमारे शतपथ ब्राह्मण आदि अनेकानेक ग्रन्थों में नित्य स्वाध्याय करने का विधान किया गया है। स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना है, यह वैदिक शिक्षा व अनुदेश है। जो व्यक्ति स्वाध्याय करते हैं और जो नहीं करते उनमें बहुत अन्तर होता है। स्वाध्यायशील व्यक्ति को ईश्वर, वेद, जीवात्मा, सृष्टि व देश-देशान्तर का अद्यतन ज्ञान रहता है। यद्यपि स्वाध्याय में केवल वेद और वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन ही सम्मिलित है परन्तु ऐसा व्यक्ति देश-देशान्तर का ज्ञान भी अवश्य रखता है। अतः उसका जीवन स्वाध्याय न करने वालों से कहीं अधिक महत्ता लिये हुए होतो है। जिस समाज में जितने अधिक व्यक्ति वेदों एवं वैदिक साहित्य जिसमें सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋषि दयानन्द जीवन चरित आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, इन ग्रन्थों का स्वाध्याय करेंगे तो उनका ज्ञान व चरित्र दूसरों से उत्तम व अधिक होगा। ऐसा समाज ही विश्व में आदर्श समाज हो सकता है। अतः श्रावणी पर्व वेदों व वैदिक साहित्य के स्वाध्याय को आरम्ी करने का पर्व होने से अन्य सभी पर्वों में सर्वोपरि है।
श्रावण में ही वेदों के स्वाध्याय का उपाकर्म करने का कारण यह है कि वर्षा ऋतु के कारण लोगों के पास अवकाश होता है। उस अवकाश के समय का सदुपयोग स्वाध्याय से अच्छा हो ही नहीं सकता। यह भी ज्ञातव्य है कि प्राचीन काल से हमारा देश कृषि प्रधान देश रहा है। अतः स्वाभाविक रूप हमारे देश के अधिकांश लोग कृषि का कार्य करते थे। देश में आजकल के समान न अच्छी सड़के थी, न बड़े बड़े बांध व आवाजाही के लिए सुखदायक वाहन ही। वर्षा ऋतु में सर्वत्र जल भराव व नदियों में बाढ़ का आलम रहता होगा, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। आज भी अनेकानेक उपायों के होते हुए भी हमारे वैज्ञानिक बाढ़ आदि को रोक पाने में समर्थ नहीं है। आज भी बाढ़ के अतिरिक्त हम सड़कों में स्थान स्थान पर गड़ढ़े आदि पाते हैं जिनसे भीषण दुर्घटनायें होती रहती हैं और लोग अपने प्राणों को गंवाते रहते हैं। कल 6 अगस्त, 2017 को देहरादून के राजपुर रोड की प्रमुख सड़क में गड़ढ़ों के कारण एक स्कूटी व टैंकर की टक्कर में 25-29 वर्ष के बीच आयु की दो युवतियां अपनी जानें गवां बैठी हैं। बाढ़ से भी देश सैकड़ों लोगों की जानें गई हैं। अतः ऐसे समय में प्राचीन काल में लोग घर में ही अधिकांश समय व्यतीत करते थे अथवा आस पास के ऋषियों के आश्रमों व गुरुकुलों में चले जाते थे जहां रहकर वह ऋषियों व विद्वानों के मार्गदर्शन में वेदों का स्वाध्याय करते थे। सामूहिक रूप से अध्ययन करने व उपदेश सुनने का अपना एक अलग भी आनन्द होता है। वक्ता व श्रोता दोनों इससे लाभान्वित होते हैं। ऐसे आयोजनों से आलस्य आदि स्वतः ही भाग जाते हैं। मनुष्य को जो सामूहिक कार्य किसी तिथि विशेष या समय विशेष पर करने होते हैं तो मनुष्य मनोवैज्ञानिक रूप से उसके लिये तैयार हो रहते हैं। हमने स्वयं देखा है कि हम गुजरात के टंकारा ग्राम में शिवरात्रि के बोधोत्सव में भाग लेने जाते हैं। रेल की टिकट बुक होती हैं। समय आने पर हम इस यात्रा के लिए निकल पड़ते हैं। स्वास्थ्य आदि की सामान्य बातें भी बाधक नहीं बनती। यात्रा में अनेक असुविधायें भी आती हैं परन्तु वह सब गौण होती हैं क्योंकि हमारा ध्यान ध्येय पर ही लगा रहता है। ऐसा ही बड़े बड़े विद्वानों के प्रवचनों में जाने का संकल्प व निर्णय कर लेने पर भी होता है।
श्रावणी पर्व पर सभी गृहस्थियों को अपने निवास पर स्वंय ही वृहद यज्ञ करने के साथ वेदों के स्वाध्याय का संकल्प भी लेना चाहिये। हमने तो अपने जीवन में युवावस्था काल से ही स्वाध्याय का अभ्यास किया है जिससे हमें बहुत लाभ हुआ है। इसी कारण हमें जीवन में अनेक विद्वानों के अनेकानेक ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला है। अनेक विख्यात विद्वानों की संगति भी मिली। यदि तब हम यह कार्य न करते तो अब नहीं कर सकते थे। आयु बीतने के साथ शरीर में शिथिलता आती है। अब हमसे वह स्वाध्याय नहीं हो पाता जो हमने तब युवाकाल में किया था। अतः किसी भी कार्य को भविष्य के लिए नहीं टालना चाहिये। भविष्य निश्चित नहीं होता। वह समय व सुविधा हमें उपलब्ध होगी भी या नहीं जिसकी हमने अपेक्षा की है। अतः जो कार्य करना है उसके लिए अभी से समय का विभाग कर जितना भी सम्भव हो उतना समय स्वाध्याय आदि को देना चाहिये। आर्यसमाज की सन् 1875 में स्थापना के बाद से विगत 142 वर्षों में आर्यसमाज के विद्वानों ने प्रभूत वैदिक साहित्य का सृजन किया है। इसमें वेदों के विचारों व मान्यताओं को सरलता से पाठक के हृदय तक पहुंचाने का प्रयत्न दिखाई देता है। अतः वर्तमान में साहित्य अधिक होने के कारण स्वाध्याय के लिएं अधिक से अधिक समय निकालेंगे तभी अध्ययन कर पायेंगे। वह लोग बहुत सौभाग्यशाली है जिनके पास प्रचुर वैदिक आर्य साहित्य है और जो निरन्तर स्वाध्याय में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों का श्रावणी पर्व वर्ष भर अच्छी प्रकार चलता है। श्रावणी पर्व के दिन ऐसे लोग भी अपने अध्ययन कार्य का पुनरावलोकन कर स्वाध्याय व अध्ययन की अपनी प्राथमिकतायें निर्धारित कर सकते हैं। ऐसा करने से विशेष लाभ होता है। स्वाध्याय में शीर्ष स्थान पर वेदों के अतिरिक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋषिकृत वेदभाष्य और ऋषि दयानन्द जीवन चरित का स्थान है। इनके अध्ययन के साथ अन्य सभी ग्रन्थों का अध्ययन करना उपयोगी होता है, ऐसा हमें लगता है। आर्यसमाज के प्रवर विद्वान आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री का श्रावणी पर्व पर एक लेख का एक अंश प्रस्तुत कर श्रावणी पर्व विषयक चर्चा को विराम देंगे। वह लिखते हैं कि ‘स्वाध्याय आर्यों के जीवन का एक अंग है। स्वाध्याय में प्रमाद का हमारे शास्त्रों में निषेध है। स्वाध्याय (Self Study) का ज्ञान के परिवर्धन में बहुत बड़ा महत्व है। शतपथ ब्राह्मण 11/5/7/1 में स्वाध्याय की प्रशंसा करते हुए लिखा गया है कि स्वाध्याय करने वाला सुख की नींद सोता है, युक्तमना होता है, अपना परम चिकित्सक होता है, उस में इन्द्रियों का संयम और एकाग्रता आती है और प्रज्ञा की अभिवृद्धि होती है।’ शतपथ ब्राह्मण में यह भी कहा गया है कि जो स्वाध्याय नहीं करता वह अब्राह्मण हो जाता है। स्वाध्याय भी अन्य व्रतों की भांति एक व्रत है। स्वाध्याय को ब्राह्मण भी कहा गया है। श्रावणी पर्व पर वृहद यज्ञों का विधान है। इस दिन पुराने यज्ञोपवीत के स्थान पर नये यज्ञोपवीत भी धारण किये व कराये जाते हैं।
आर्यसमाज के विद्वान प्र. भवानी प्रसाद जी के अनुसार राजपूत काल में अबलाओं के अपनी रक्षार्थ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हआ है। जिस किसी वीर क्षत्रिय को कोई अबला राखी भेजकर अपना राखी-बन्द भाई बना लेती थी, उस की आयु भर रक्षा करना उन का कर्तव्य हो जाता था। चित्तौड़ की महारानी कर्णवती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के बादशाह से अपनी रक्षार्थ राखी भेजी थी, जिस से उस ने चित्तौड़ पहुंचकर तत्काल अन्त समय पर उस को सहायता की थी और चित्तौड़ का बहादुरशाह के आक्रमण से उद्धार किया था। तब से बहुत से प्रान्तों में यह प्रथा प्रचलित है कि भगिनियां और पुत्रियां अपने भ्राताओं और पिताओं के हाथ में श्रावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कुछ द्रव्य और वस्त्र पाती हैं। यदि यह प्रथा पुत्री और भगिनी-वात्सल्य को दृढ़ करने वाली मानी जाए तो उस के प्रचलित रहने में कोई क्षति भी नहीं है। पं. भवानी दयाल जी यह भी लिखते हैं कि आर्य पुरुषों को उचित है कि श्रावणी के दिन वृहद् हवन और विधिपूर्वक उपाकर्म करके वेद तथा वैदिक ग्रन्थों के विशेष स्वाध्याय का उपाकर्म करें और उस को यथाशक्ति और यथावकाश नियमपूर्वक चलाते रहें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य