कविता : पक्षियों की मनोव्यथा
पहले तन मन की आजादी थी
सुबह निकल घरों से घूमा करते थे
मस्त वादियों में दाना चुगकर आ जाया करते थे
घरोंको खुला छोड़कर,
हम सब पक्षीजन जो मण्डल में चहका करते थे!
प्यार से बुलाकर मानव पहले स्पर्श किया करते थे
अपने खाने से पहले हमें खिलाया करते
जब कहीं जाते थे वे बाहर
हृदय मन में पीड़ा उठती
फिर भी हजार सामान लाते!
चारों तरफ एक प्रेम भाव की स्वतंत्रता थी
धरती वृक्ष बगीचे में घूमकर
पत्ती-पत्ती कली-कली चहका करती थीं
हर कोई देख मुस्कुराता
हमारे न रहने पर बच्चों को दूध पिलाता !
अब लोग मानव से दानव हो गए
सारे के सारे अरमाँ खाक हो गए
न कहीं जा सकते हैं
न चैन से रह सकते हैं
प्रेमाकुल आजादी सब गुम हो गई
नफरत मिथ्या मोह की खूनी नदियाँ बह गईं
हम कहीं जब उड़के बाहर जाते हैं
तो मानव हमको मार गिराते हैं
बस हम यों ही तड़फते रहेंगे
इस जिंदगानी को मानव के सुपुर्द करते रहेंगे!
— संतोष पाठक
जारूआ कटरा (आगरा)