सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक होने की आवश्यकता
आजादी के सत्तर वर्ष पूर्ण कर अब हम इकहत्तर वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं लेकिन आज भी यह प्रश्न विद्यमान है कि क्या हमने सही अर्थों में आजादी पाकर लोकतंत्र की स्थापना कर ली है.यहाँ हमें यह स्वीकार तो करना ही होगा कि विदेशी हुकूमत से लोहा लेकर हमने आजादी हांसिल कर ली और देश में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली स्थापित कर ली.सिद्धान्त रूप में दोनों ही बातें सही हैं और इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता.जहां तक आजाद देश होने और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था स्थापित करने की बात है तो हम इस पर अभिमान भी कर सकते हैं लेकिन दूसरी और कई बातें ऐसी हैं जिसमें आजाद भारत की तस्वीर पर स्याह धब्बे भी परिलक्षित हो रहे हैं.
जहां आजाद भारत के उजले पक्ष की बात है तो विगत वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हमने जोरदार तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी मुल्क को अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में उसकी सही औकात भी दिखाई है किन्तु चीन जैसे देश को गुर्राने का अवसर भी दिया है तथापि दुनिया भर में भारत को सम्भावनाओं से भरपूर देश के रूप में परिचित कराया है तथा निवेश के असीमित अवसर उपलब्ध कराये जाने की दिशा में आगे बढे हैं.इसका श्रेय हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जाता है.इन सबके बावजूद देश सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण रूप से आजाद और लोकतांत्रिक स्वरूप नहीं पा सका है तो इसके लिए हमारे देश के राजनीतिक दल और प्रशासनिक तंत्र कम जिम्मेदार नहीं है.
सत्तर वर्ष की आजादी के बाद भी जनसंख्या विस्फोट एक समस्या बनी हुई है.रोजगार का संकट यानी बेकारी की समस्या से निजात नहीं पा सके हैं.छोटे उद्योग-धंधे चौपट होते जा रहे हैं.बाजार व्यवस्था को पूंजीपतियों ने हथिया लिया है.छोटे व्यापारी –व्यवसायी बेरोजगार होने की कगार पर पहुँच गए हैं.भूखमरी की समस्या को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सका है.स्पष्ट रूप से रोजी-रोटी की समस्या मुँह बाए खडी है. हम अपने संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप लोक कल्याणकारी और समाजवादी राज्य की स्थापना नहीं कर पाए हैं.संभवतः यह नीतिगत मामलों में राह भटकने का परिणाम है .आजाद भारत में स्वस्थ्य लोकतंत्र के मार्ग में अनेकानेक बाधाएं अभी भी खडी हैं और हमारे नेतृत्व ने उन बाधाओं को हटाने या दूर करने की ईमानदार कोशिश नहीं की.यही वजह है कि देश में आम और ख़ास का अंतर आज भी विद्यमान है.शोषक और शोषित वर्ग का भेद आज भी समाप्त नहीं हुआ है.देश का साधारण नागरिक भी अपने अधिकारों की लड़ाई लोकतांत्रिक तरीके से नहीं लड़ सकता बल्कि उसे देश में स्थापित हो चुकी भ्रष्ट व्यवस्था का अंग बनकर ही कुछ हांसिल हो सकता है.कहने का तात्पर्य यही है कि देश में अधिसंख्य चुनौतियाँ विद्यमान है.गरीबी और अमीरी का अंतर बढ़ा है. वर्गभेद और जातिगत भेदभाव समाप्त नहीं किया जा सका है बल्कि इनमें अतिशय वृद्धि ही हुई है. कहाँ तो हमें जातिवाद और वर्ग भेद को मिटाना था किन्तु वोट की राजनीति ने व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य खाई उत्पन्न कर दी .जाति और वर्ग के मध्य वैमनस्यता के बीज बो कर वर्ग संघर्ष की स्थिति निर्मित कर दी गई है.निश्चित ही सामाजिक और आर्थिक स्तर पर विभेदकारी नीतियों ने देश में लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर उन्हें बेहद कमजोर किया है.
भले ही दुनिया में आर्थिक उथल-पुथल के बावजूद हमारी अर्थनीति सफल कही जा रही हो,देश की अर्थव्यवस्था सही दिशा में जा रही हो ,आर्थिक विकास दर सकारात्मक रुख अख्तियार कर रही हो ,देश आर्थिक विकास के मामले में एशिया का नेतृत्व करने की क्षमता हांसिल कर रहा हो और हाँ,यह बात भी अवश्य है कि समानांतर रूप से चीन भी एशिया की महाशक्ति होकर नेतृत्व की क्षमता विकसित कर रहा है तथापि दोनों के मध्य टकराव होना शुभ संकेत नहीं हैं.जहां चीन ने अपने आर्थिक साम्राज्य हेतु पाकिस्तान ,नेपाल सहित कुछ अन्य देशों को जोड़कर अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं वहीं भारतीय प्रधानमंत्री के धुंआधार विदेशी दौरों ने भारत के नेतृत्व क्षमता की आक्रामक तस्वीर भी रख दी है और वह इसमें कुछ अंशों तक सफल भी रहा है.हमारे देश को अभी चीन और पाकिस्तान से तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ रहा है .देश में आतंकी गतिविधियों में वृद्धि और काश्मीर समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है.कश्मीर के मामले में हमें सावधानीपूर्वक फैसले लेना होंगे.केरल और पश्चिम बंगाल के मामले में भी दूरदर्शितापूर्ण नीति की आवश्यकता है,.इन प्रदेशों में दलगत राजनीति से अलग हटकर देशहित में निर्णय लिए जाने की अपेक्षा है वरना लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही आघात लगेगा.
इधर राजनीतिक हालात भी लोकतंत्र के अनुकूल नहीं कहे जा सकते .लोकतंत्र की सफलता की गारंटी सत्ता पक्ष के साथ सशक्त विपक्ष के होने पर ही रहती है .देश में सशक्त विपक्ष का वर्तमान हालात में अभाव ही कहा जाएगा जबकि सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है किन्तु विभिन्न राजनीतिक दल बिखरे हुए हैं सत्ता का लालच उन्हें एक नहीं होने दे रहा है.एक व्यक्ति-एक दल की भावना ने पुनः जोर पकड़ लिया है.अनुशासित और आंतरिक लोकतंत्र की पुरोधा पार्टी भी अब इससे अछूति नहीं रही.नेहरूजी और इंदिरा जी के समय जबकि एक दल-एक व्यक्ति की विचारधारा जोरों पर थी तब भी विपक्ष इतना कमजोर और बिखरा हुआ नहीं था जितना कि आज है.तब विपक्ष और उसके नेता की आवाज में भी वजन हुआ करता था .वर्तमान में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के इर्दगिर्द सम्पूर्ण देश की राजनीति का ध्रुवीकरण होता जा रहा है,यह भी स्वस्थ्य लोकतंत्र की अवधारणा की दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है. चुनाव आयोग भले ही निष्पक्ष चनाव के दावे करता हो लेकिन देश की राजनीति में समा चुकी गंदगी देश में लोकतंत्र का गला घोंट रही है.धनशक्ति-बलशक्ति का बोलबाला है,जहाँ आम जनता की अपनी कोई आवाज नहीं है.चुनाव नीतियों और कार्यक्रमों के आधार पर नहीं लड़े जा रहे हैं बल्कि एक-दुसरे को नीचा दिखाकर अपना वर्चस्व स्थापित करने और सत्ता हांसिल करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद यानी सभी तरह के हथकंडे अपनाकर लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है.
राजनीतिक दलों की अतिमहत्वाकांक्षा और उनकी विभेदकारी नीतियाँ भी लोकतंत्र को कमजोर करती जा रही है.सम्प्रदायवादी राजनीति ने हिन्दू-मुस्लिम के बीच अविश्वास का बीज बोकर उनके मध्य भेद उत्पन्न कर दिया है.यह समाज को बाटने का कार्य है.दलितों,पिछड़ा वर्ग और सवर्णों के मध्य टकराव की स्थिति निर्मित करना स्वस्थ्य लोकतंत्र के हित में नहीं है.देश में बढ़ते असंतोष तथा अस्थिरता के लिए राजनीतिक दलों का उत्तरदायित्व भी कम नहीं है.कुछ तो जनजागरूकता का भी अभाव है. थोड़े से बहकावे में आकर ही लोग गलत राह पकड़ लेते हैं.लोकतंत्र के चारों स्तंभों की मजबूती भी आवश्यक है वर्तमान में ये चारों स्तम्भ अपनी सही भूमिका निभाने में कमजोर साबित हो रहे हैं जबकि उन्हें समान रूप से अपनी उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना चाहिए. अभी तो हम पूर्ण आजादी और पूर्ण लोकतंत्र होने का दावा भी करने की स्थिति में नहीं हैं.कहीं अधूरापन है इस आजादी में,और स्थापित लोकतंत्र में.विधायिका अपने आप को असहाय मान लेती है,कई बार न्यायपालिका की भी यही स्थिति बन जाती है यहां तक कि कई बार शीर्ष अदालत द्वारा इस तरह की टिप्पणियाँ भी की गई है .मीडिया का दायित्व और अधिक हो जाता है किन्तु वह भी पूर्णरूप से सकारात्मक भूमिका नहीं निभा पा रहा है.वैसे यह तस्वीर का एक ही पक्ष है ,जहां हमें चारो ओर नकारात्मक बातें ही दिखाई दे रही है लेकिन इसका सकारात्मक और महत्वपूर्ण पक्ष भी है कि देश में लोकतंत्र का प्रयोग सफल रहा है.सही अर्थों में आजादी का उपभोग हम तभी कर पायेंगे जब जन-जन जागरूक होगा और लोकतंत्र को सही अर्थो में समझेगा.आवश्यकता जनजागरूकता की है.आजादी को संजोने और लोकतंत्र को स्वस्थ्य तथा दीर्घायु रखने के लिए जन-जन की सहभागिता आवश्यक है तथा इसके लिए उन्हें आगे आना होगा. देश की बागडोर जिन्हें भी सौंपे ,नीतियों और कार्यक्रम के आधार पर ही सौंपे और आने वाले चुनावों में उनका पूरा हिसाब भी लें,तभी हम सच्चे अर्थों में आजाद भी कहलायेंगे और लोकतांत्रिक देश होने का गौरव भी प्राप्त कर सकेंगे.