ग़ज़ल
खुदा से ख़ौफ़ नहीं कर रहा है आदमी।
एक दूजे का दुश्मन बन रहा आदमी।।
खैरियत पूछता कौन है अब किसी की यहाँ।
मतलबपरस्ती में जी रहा है आदमी।।
रंग नित नए बदलता अपने जीवन मे आदमी।
गिरगिट भी हैरान हो देख रहा आदमी।।
मर्यादा त्याग कर हँस रहा है आदमी।
रिश्तों का अपनापन खो रहा आदमी।।
इंसानियत को भूल हैवान बन रहा आदमी।
खुद में बैठे भगवान को खोजता नहीं।
मंदिर मस्जिद में खोज कर रहा आदमी।।
मेहनत की कमाई से जी चुराता आदमी।
मुफ्त में पाने का जतन कर रहा आदमी।।
देश का भला कैसे हो “पुरोहित” यहाँ।
हर कोई मनमानी पर उतर रहा आदमी।।
— कवि राजेश पुरोहित