कविता

कविता

मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी हो गयी है ।
ऑफिस की खिड़की से देखा मैंने मौसम की पहली
बरसात को ।
काले बादल पर नाचती बूंदों की बरात को
एक बच्चा मुझसे निकल कर भाग था भींगने बाहर
रोका बड़पन ने मेरे पकड़ के उसके हाथ को ।
बारिश और मेरे बचपने के बीच एक दीवार खड़ी होगयी ।
लगता है मेरे बचपन की बारिस भी बड़ी होगयी ।
वो बूंदे काँच की दीवार पर खट खटा रही थी
मै उनके संग खेलता था  कभि सायद इसीलिए बुला रही थी ।
पर तब मैं छोटा था और ये बाते बड़ी थी
 तब घर वक़्त पर जाने की किसे पड़ी थी ।
अब तो बारिश पहले राहत फिर आफत बन जाती है
जो गरज पहले लुभाती थी अब वही डराती है ।
 मै डरपोक होगया ओर बदनाम ये सावन की झड़ी होगयी ।
लगता है मेरे बचपन की बारिश भी बड़ी होगयी
जिस पानी मे छपाके लगाते उसमे किटाडू दिखने लगा
खुद से ज्यादा फिक्र की लेपटॉप भींगने लगा ।
स्कूल में दुआ थी कि बरसे बेहिसाब ओर छुट्टी होजाये
अब भींगे तो डरे की कही ऑफिस की छूटी ना होजाये ।
सावन जब चाय और पकवड़ो के सोहबत में इत्मीनान से बीतता था
वो दौर वो घड़ी बड़े होते होते कही खोगई ।
लगता है मेरे बचपन की बारिस बड़ी होगयी ।।।।।।
राज सिंह

राज सिंह रघुवंशी

बक्सर, बिहार से कवि-लेखक पिन-802101 [email protected]