स्वराज्य प्राप्ति व देश की आजादी के प्रथम उद्घोषक एवं प्रेरक ऋषि दयानन्द
ओ३म्
देश की आजादी की 70वीं वर्षगाठ पर
हमारे देश को आठवीं शताब्दी व उसके बाद मुसलमानों ने गुलाम बनाया था और उसके बाद अंग्रेजों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इस पर राज्य किया। वास्तविकता यह है कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य सृष्टि तिब्बत में हुई थी। सारे विश्व के पूर्वज यहां एक परिवार के रूप में रहा करते थे। परमात्मा ने यहीं पर ही अमैथुनी सृष्टि में चार आदिम ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उत्पन्न कर सृष्टि की आदि में उन्हें चार वेदों का ज्ञान दिया था। आदि सृष्टि के लोग इन ऋषियों से वेदों का ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण ज्ञानी हो गये थे। उन्होंने अन्य सभी मनुष्यों को उपदेश द्वारा वेदों का ज्ञान देने के साथ उनको उनके भोजन व कर्तव्यों से भी अवगत कराया था। उन्हें बताया गया कि उन्हें शाकाहारी भोजन करना है। उस समय उनके आसपास नहरों व जल स्रोतों में स्वच्छ व निर्मल जल उपलब्ध हो जाता था। वायु पूर्ण शुद्ध थी। वृक्ष अनेक वा सभी प्रकार के फलों से लदे हुए थे। आसपास गायें मौजूद थी जिनका दुग्ध सभी मनुष्यों के लिए उपलब्ध था। इन सब पदार्थों से उनका निर्वाह आसानी से हो जाता था। समय के साथ तिब्बत में मनुष्यों की जनसंख्या बढ़ी। कुछ लोगों का आपस में विवाद भी हो जाता था। अतः ऐसे अनेक कारणों से लोगों ने समूहों में संसार के अनेक स्थानों पर जाकर वहां निवास करना आरम्भ कर दिया। समय समय पर उनका एक दूसरे पास आना-जाना व मिलना होता रहा होता होगा। वेदों व भारतीय इतिहास के शीर्ष विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार आर्यों ने समस्त विश्व में आर्यावर्त के वर्तमान के भारत नामी भौगोलिक स्थान को सर्वोत्तम जानकर यहां पर आकर निवास किया व इस निर्जन स्थान व भूखण्ड को प्रथम बार बसाया। तभी से यह स्थान आर्यावर्त्त कहलाया। आर्यावर्त्त से पहले इसका अन्य कोई नाम नहीं था और न कोई लोग या जाति यहां बसती व रहती थी। सृष्टि के आरम्भ के कुछ वर्ष बाद ही आर्य तिब्बत से सीधे आर्यावर्त वा भारत आकर बस गये थे। सृष्टि की रचना व मनुष्योत्पत्ति को लगभग 1.96 अरब वर्ष हो चुके हैं। इस लम्बी अवधि में संसार में अनेक भौगोलिक, जातीय व सामाजिक परिवर्तन हुए हैं। मुस्लिम व विदेशियों ने अपने राज्यों की नींव को मजबूत करने के लिए नाना प्रकार की कल्पनायें हम पर थोपी हैं जिन्हें विदेशियों के उच्छिष्ट भोजियों ने अपने आर्थिक व इतर स्वार्थों के कारण स्वीकार कर लिया। वास्तविकता वही है जो स्वामी दयानन्द जी ने कही है। आर्य ही इस आर्यावर्त व भारत के मूल निवासी हैं। आर्यों ने किसी पर आक्रमण कर उन्हें पराजित नहीं किया और फिर यहां बसे हों यह मान्यता कपोल कल्पित व अस्वीकार्य है।
यह भी ज्ञातव्य है कि सृष्टि के आरम्भ से आर्यों का न केवल आर्यावत्त-भारत पर ही अपितु विश्व के सभी देशों पर चक्रवर्ती राज्य रहा है। भारत के सभी चक्रवर्ती सम्राट वेदों के सिद्धान्तों के अनुरूप धार्मिक होते थे और विश्व में सत्य व न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार राज्य करते व कराते थे। ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि जब किसी देश के पास आवश्यकता से अधिक वैभव व ऐश्वर्य हो जाता है तो वहां आलस्य व प्रमाद बढ़ता है जिससे उन्नति अवनति की ओर मुड़ जाती है। ऐसा ही महाभारतकाल से कुछ काल पहले आरम्भ हुआ और इन्हीं कारणों से 5.100 वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ। इस युद्ध में जान व माल की कल्पनातीत हानि हुई। देश की सभी व्यवस्थायें कुप्रभावित हुईं। राज्य के संचालन में बाधायें उपस्थित हुईं। विद्वानों की कमी से धर्म व शिक्षा व्यवस्थायें लड़खड़ा गइंर्। लोगों में मुख्यतः ब्राह्मणों ने वेदों के अध्ययन में श्रम करना लगभग छोड़ दिया। इस कारण देश व संसार में धर्म विषयक अन्धकार फैल गया। अज्ञान व अन्धविश्वासों में वृद्धि हुई और वेद विरुद्ध परम्पराओं का प्रचलन हुआ। यज्ञों में पशुओं की हिंसा, जन्मना जातिवाद, जन्मना ब्राह्मणवाद, छुआ-छूत, व्यक्ति व जड़पूजा, नास्तिकवाद, परतन्त्रता आदि के मूल में वेदों का अप्रचार ही मुख्य कारण रहा है।
ऐसे वातावरण में महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी का उदय व प्रादुर्भाव होता है और उनके नाम से नास्तिक मत, जो ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते, चल पड़ते हैं। मूर्तिपूजा का आरम्भ भी जैन मत के द्वारा आरम्भ होता है। इनकी देखादेखी और अज्ञानता के कारण आर्य हिन्दुओं में मूर्तिपूजा का प्रवेश होता है। वेद प्रायः लुप्त व अप्रचलित हो जाते हैं। वेदों को जानने व यथार्थ रूप में समझने की योग्यता लोगों में समाप्त हो जाती है। अज्ञानता के कारण स्वार्थ सिद्धि के लिए मूर्तिपूजा और अवतारवाद व बाद में मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष आदि का प्रचलन भी होता है। जन्मना जातिवाद, ऊंच-नीच, छुआछूत, वेदों के अध्ययन में अनधिकार आदि बातें भी प्रचलन में आती हैं। किसी में सामर्थ्य नहीं होता कि इनका विरोध करे। ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ व संसार को स्वप्नवत् मानने वाले स्वामी शंकराचार्य जी भी मूर्तिपूजा व अन्य वेद विरुद्ध मान्यताओं का विरोध नहीं कर पाते। देश दिन प्रतिदिन रसातल की ओर जा रहा होता है। छोटे छोटे नगर व प्रान्त स्वतन्त्र राष्ट्र बनने लगते हैं। विदेशी आते हैं और भारत को गुलाम बनाकर यहां की माताओं, बहिन, बेटियों को अपमानित करते हैं। अरब देशों में ले जाकर उनको कौड़ियों के दाम पर निलाम किया जाता है। उनसे मल-मूत्र तक साफ कराया जाता है और मार भी दिया जाता है। लोगों का जबरदस्ती बलप्रयोग से धर्मान्तरण किया जाता है, उन्हें गोमांस खाने को मजबूर किया जाता है और धर्मान्तरित न होने वालों के सर काट दिये जाते हैं। फिर अंग्रेजों की गुलामी आती है। वह भी जी भर कर देश का शोषण और यहां के हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार करते हैं। देश का भविष्य धूमिल हो जाता है। आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती जो इस विपरीत परिस्थिति से देश को बाहर निकाले।
ऐसे समय में गुजरात के टंकारा कस्बे में बालक मूलशंकर का जन्म होता है। बाद में यही बालक स्वामी दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध होते हैं। यह योग और सभी धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हैं। वेद विद्या प्राप्त कर उस पर अधिकार प्राप्त करते हैं और पाते हैं कि वेद ईश्वरीय ज्ञान एवं सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है। स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा स्वामी दयानन्द के विद्यागुरु थे। वह उन्हें देश भर से अज्ञान व अविद्या को दूर करने का सन्देश व परामर्श देते हैं। स्वामी दयानन्द उनकी आज्ञा को स्वीकार कर इस कार्य में लग जाते हैं और 5,000 वर्षों से जिस अज्ञान व अविद्या ने देश की जड़ों को खोखला बना दिया था, उ़स अज्ञान व अंधविश्वासों को वेद विद्या के प्रचार से नष्ट कर देश को पुनः संसार में आध्यात्मिक व सामाजिक दृष्टि से सर्वोत्तम बनाने का आन्दोलन करते हैं और उसमें आंशिक रूप से सफल भी होते हैं।
ऋषि दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात प्रदेश के टंकारा नामक स्थान पर हुआ था। 22 वें वर्ष में उन्होंने गृह त्याग किया। सन् 1860 तक वह देश भर में घूम कर योग व अन्य विद्याओं को योग्य विद्वानों व योगियों आदि से सीखते रहे। पूर्ण विद्या उन्हें स्वामी विरजानन्द सरस्वती से सन् 1863 में प्राप्त हुई। वहां से चलकर उन्होंने अज्ञान व अन्धविश्वास दूर करने व देश की परतन्त्रता को दूर करने के लिए ज्ञान के प्रचार व प्रसार के प्रतीक वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया। वह देश में जाकर उपदेश करने के साथ वेद विरुद्ध मतों के विद्वानों से चर्चायें, वार्तालाप व शास्त्रार्थ करते थे। अविद्या व अन्धविश्वासों का खण्डन भी करते थे जो कि अत्यावश्यक था और आज भी है। ज्ञान के प्रचार व प्रसार के लिए ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित यजुर्वेद-आंशिक-ऋग्वेद भाष्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। स्वामी जी के सभी ग्रन्थों में ज्ञान की प्राप्ति, गुलाम बनने व बनाने का विरोध, देश को स्वतन्त्र करने की प्रेरणा अनेक स्थानों पर विद्यमान है। सन् 1883 में संशोधित सत्यार्थप्रकाश में वह स्वराज्य वा आजादी की प्रेरणा करते हुए लिखते हैं ‘कोई (अंग्रेज हुकमरान) कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय (अपने देश में उत्पन्न वेदों के विद्वान लोगों द्वारा संचालित राजसत्ता) राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत–मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपातशून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों (अंग्रेजों) का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।’ यह, ऐसे व इससे मिलते जुलते अनेक वचन सत्यार्थप्रकाश और उनके अन्य ग्रन्थों में भी पाये जाते हैं जो देश की आजादी के प्रेरक बने। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में उक्त शब्दों में खुले रूप में अंग्रेजों के राज्य को भारतीयों द्वारा संचालित राज्य की तुलना में त्याज्य बताया है। देश के इतिहास में ऐसे शब्द इससे पूर्व किसी महापुरुष या व्यक्ति द्वारा नहीं कहे गये। ऐसा साहस अन्य कोई व्यक्ति कर भी नहीं सकता था। सन् 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा हमारे राजनेताओं ने दिया, उसमें भी ऋषि दयानन्द जी के इन्हीं वाक्यों की प्रेरणा व प्रतिध्वनि कार्य करती हुई दृष्टिगोचर होती है। यही कारण था कि आजादी के आन्दोलन में सबसे अधिक भागीदारी आर्यसमाज के स्त्री व पुरुषों द्वारा की गई। स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, वीर सावरकर सहित सभी क्रान्तिकारियों के गुरु पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, गोपाल कृष्ण गोखले के गुरु महादेव गोविन्द रानाडे, भाई परमानन्द, रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगतसिंह और उनके पिता व पितामह सभी ऋषि दयानन्द के अनुयायी थे।
ऋषि दयानन्द ने न केवल आजादी की ही अपितु समग्र क्रान्ति की प्रेरणा भी की। वेद क्रान्ति सहित उन्होंने समाज सुधार के सभी कार्यों को हाथ में लिया और देश के सामने उनका महत्व उजागर किया। न केवल आजादी व समाज सुधार अपितु शिक्षा के प्रसार हेतु भी गुरुकुलों व डीएवी कालेजों की स्थापना कर आर्यसमाज ने शिक्षा जगत में भी क्रान्ति की। अनाथालय खोले गये। विधवा विवाहों को प्रोत्साहित किया गया। दलितों को गुरुकुलों में प्रविष्ट कर उन्हें वेदों का आचार्य और पुरोहित बनाया गया। प्रो. मैक्समूलर तक दबी जुबान से ऋषि दयानन्द के वेद भाष्य व समाज सुधार आदि कार्यों की प्रशंसा करते हुए दिखाई देते हैं। स्वामी दयानन्द ने इन सभी कार्यों को करते हुए गोरक्षा और हिन्दी के प्रचार व प्रसार का महनीय कार्य भी किया और इन क्षेत्रों में देश के भावी कर्णधारों का मार्गदर्शन किया।
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि आजादी सहित राजनीतिक व सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द सरस्वती ही थे। देश की सत्तरवीं आजादी के दिवस पर हम स्वतन्त्रता के अग्रदूत स्वामी दयानन्द का पावन स्मरण कर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं। देश की आजादी में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आदि क्रान्तिकारियों व गांधी जी व सरदार पटेल आदि नरमपंथियों सहित सभी देशभक्तों को नमन करते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य