सामाजिक

लेख – बच्चों के प्रति सामाजिक उपदेयता शून्य क्यों ?

बीते दिनों दिवंगत हुए वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल ने वर्ष 1992 में बच्चों के बस्तों के बोझ को कम करने को कहा था, लेकिन लगभग 25 वर्ष बीत गए, और यशपाल जी भी नहीं रह। इन दिनों में कुछ नहीं बदला तो वह रहा बच्चों की पीठ पर लदा कुलियों जैसा भारी-भरकम बोझ। 2015 में हुए महाराष्ट्र में एक वैज्ञानिक सर्वें में यह पुष्टि हुई थी, कि स्कूल जाने वाले 58 फीसद बच्चों में पीठ दर्द और रीढ़ में विकृति का कारण बच्चों को ज्ञान उपलब्ध कराने वाली किताबों से भरे बोझ की वजह से हो रहा है। इसके अलावा इस सर्वें में एक अन्य गंभीर समस्या सामने यह आई थी, कि बच्चों की शारीरिक लम्बाई न बढ़ने का कारण भी बच्चों से पढ़ाई के नाम पर कराई जा रही कुलियों जैसा व्यवहार हैं ऐसे में सामाजिकता से जुड़े गंभीर मसले पर विद्यालयों के व्यवस्थपकों से लेकर सरकारों तक की उदासीनता यह जगजाहिर करती है, कि सरकारें अपने नौनिहालों के प्रति सजग नहीं है। इसके इतर सबसे बड़ा चिंतानीय विषय तो यह है, कि माता-पिता भी विरोध जाहिर नहीं करते। वैज्ञानिकों का कहना है, कि बच्चों के भार के अनुपात में बस्तों का वजन 10 फीसद से अधिक नहीं होना चाहिए, फिर जब हमारे नौनिहाल ज्ञान के नाम पर 10 से 12 किलो के बीच के बस्ते ढोते है, फिर उस पर सामाजिक उपदेयता शून्य क्यों हो जाती है?

मीड़िया रिपोर्टस के मुताबिक पता चलता हैँ , कि मध्यप्रदेश सूबे में बच्चों के बैग का वजन लगभग सत्तरह किलो हो सकता है। इसके साथ सूबे के 68 फीसद बच्चें अगर बैग के बोझ के कारण किसी न किसी बीमारी से पीड़ित है, तो सरकार को इस तरफ सचेत होना चाहिए। भोपाल शहर के चार स्कूलों के बच्चों पर हुए कुछ महीने पहले के सर्वे।जिसमे क्लास चार से आठ तक के बच्चोंको शामिल किया गया। तो यह सामने आया, कि बच्चों के भार के लगभग बैग का  औसत भार  18 फीसद था। ऐसे में  तेलंगाना सरकार द्वारा स्कूली बच्चों के बस्तों का बोझ कम करने और प्राथमिक स्तर के बच्चों के  होमवर्क पर रोक लगाने का निर्णय प्रशंसनीय और अनुकरणीय पहल है। जिस ओर मध्यप्रदेश सरकार को भी विचार करना चाहिए।

इसके इतर हमारे न्यायालय ने भी जब अपने आदेश  में यह कहा है, कि बच्चों  के बस्ते का वजन बच्चों के वजन के अनुपात में दस फीसद से अधिक न हो, फिर बच्चों के साथ पढ़ाई के नाम पर खिलवाड़ क्यों हो रहा है? इसके पीछे का पूरा उद्देश्य साफ दृष्टिगोचर होता है, कि निजी स्कूलों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए किताबों के बोझ में बचपन दबा दिया जाता है। यह आखिर कहां तक सही है? जिस उम्र में बच्चों को मौखिक ज्ञान और खेल-कूद में सीखाने की जरूरत होती है, अगर उस कच्ची उम्र में ही बच्चों को कुली बन दिया जाएगा, तो उनके शारीरिक और मानसिक स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता होगा, यह हमारे हुक्मरानों, सामाजिक बुद्विजीवियों और संरक्षकों को इसका ख्याल रखना होगा। जब आज के दौर में तकनीक सिर चढ़कर बोल रही है, तो ऐसे में अगर बच्चों को कुछ नया सीखना भी है, तो तकनीक का सहारा भी लिया जा सकता है। जिससे किताबों की लादने की नकारात्मक प्रवृत्ति भी कम होगी। अमेरिका के बच्चों को बस्तों के बोझ के झंझट में नहीं पिसा जा रहा है, तो वे कहीं किसी स्तर पर अन्य देश  के बच्चों से पीछे है? और हमारे देश में बस्तों के तले लादने के बाद भी शिक्षा की वहीं स्थिति है, ढाक के तीन पात। फिर ऐसी शिक्षा किस अर्थ की? जिससे बच्चों का बचपन भी गुम हो जाएं, और बीमारियों का घर बनकर देश के कर्णधार रह जाएं। इस पर हमारे नीति-नियंताओं को गहन विचार-विमर्श करना होगा।

— महेश तिवारी 

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896