इंसानियत – एक धर्म ( भाग – अट्ठाइसवां )
दरवाजे पर खड़े पांडेय जी को देखते ही उनके सम्मान में अपने दुपट्टे से सिर को ढंकते हुए शबनम ने मुस्कुरा कर उनका स्वागत किया ” आइये ! आइये ! साहब ! अंदर आ जाइये । ” और फिर एक किनारे हटकर उनके अंदर आने का इंतजार करने लगी । चूंकि वह पांडेय जी को पहले से ही पहचानती थी उन्हें देखकर उसे कुछ राहत महसूस हुई थी । पांडेय जी ने दोनों सिपाहियों को बाहर ही रुकने का इशारा किया और अंदर बिछे खटिये पर बैठते हुए शबनम की तरफ सवालिया नजरों से देखने लगे । उनकी नजरों से बचने की कोशिश में शबनम ‘ पानी लाती हूँ ‘ कहकर अंदर पानी लेने चली गयी ।
जब लौटी उसके हाथ में पानी का एक गिलास और लोटा था । एक प्लेट में शक्कर उसने पहले ही रख दिया था । उसके हाथों से पानी का गिलास लेते हुए पांडेय जी ने सपाट स्वर में पुछा ” मुनीर कहाँ है ? ”
अचानक उसके सामने दोनों हाथ जोड़ते हुए शबनम भर्राए स्वर में बोल पड़ी ” बात क्या है साहब ? ये आये तो थे अचानक रात में । कुछ परेशान से लग रहे थे ,लेकिन कई बार पुछने पर भी उन्होंने कारण नहीं बताया । मैं तब से ही परेशान हूँ और सोच रही हूं कि आखिर क्या हुआ होगा लेकिन कुछ समझ में नहीं आया ।………” पांडेय जी ने उसकी बात बीच में ही काटकर कहा ” हम सब समझा देंगे । पहले हमारे सवालों का सही सही जवाब दो । ”
” पूछिये ! साहब ! क्या जानना चाहते हैं आप ? ” शबनम ने चेहरे पर दृढ़ता का भाव लाते हुए कहा ।
” मुनीर यहां कब आया था ? ” अब पांडेय जी का स्वर पुलिसिया रौब से भरा हुआ था ।
लेकिन तनिक भी विचलित नहीं होते हुए शबनम ने बड़ी शांति से जवाब दिया ” समय तो ठीक ठीक नहीं मालूम साहब ! लेकिन शायद रात का दस या ग्यारह का वक्त हुआ रहा होगा । मुझे बस नींद लगने ही वाली थी । ”
” अच्छा ! और कौन था उसके साथ ? ”
” कोई नहीं ! ”
” अचानक आने की कोई वजह बताई ? ”
” जी नहीं साहब ! वही तो मैं जानना चाहती हूं । ”
” तुमने पुछा नहीं ? ”
” आपको पहले ही बता चुकी हूं मेरे लाख पुछने के बावजूद उन्होंने कुछ नहीं बताया । ”
” सुबह यहां से कब गया ? ”
” मुझे नहीं पता साहब ! मैंने तो उनसे कहा भी था कि आप सुबह उठेंगे तो मुझे जगा देना , चाय बना दूंगी लेकिन सुबह मेरे उठने से पहले ही वह जा चुके थे । ”
” ठीक है । कहाँ जाएगा इस बाबत कोई चर्चा की थी ? ”
” जी नहीं जनाब ! ”
” वह कहां जा सकता है ? बता सकती हो ? ”
” जी नहीं ! मैं कैसे बता सकती हूं ? लेकिन हुआ क्या है ? आखिर इतने सवाल जवाब क्यों ? ” कहते हुए शबनम रोने लगी थी । उसके रोने की आवाज सुनकर पड़ोस से रामु और दो चार अन्य गांववाले वहां पहुंच गए । रामु चाचा सीधे मुनीर के घर में घुस गए थे । दो हवलदारों को मुनीर के घर के बाहर खड़े देखकर वह कुछ अनुमान लगाते कि शबनम के रोने की आवाज सुनकर भागते हुए सीधे मुनीर के घर में ही घुस गए थे । साथ ही अन्य गांववाले भी थे । अंदर पांडेय जी को देखकर रामु ने उनका अभिवादन करते हुए उनसे पुछा ” क्या हुआ साहब ? सब ठीक तो है न ? ये बहु क्यों रो रही है ? ”
रामु की तरफ देखते हुए पांडेयजी ने उन्हें पुलिसिया रौब से पुछा ” तुम कौन हो ? क्या नाम है तुम्हारा ? ”
” रामचंद्र नाम है मेरा साहब ! यहीं पड़ोस में ही रहता हूँ । ”
” हम लोग मुनीर की तलाश में यहां आए हैं । क्या तुमने उसे कल यहां आते हुए देखा था ? ”
” मुनीर की तलाश में ? ऐसा क्या हो गया साहब ? मुनीर ने आखिर किया क्या है ?” रामु काका का मुंह हैरानी से खुला ही रह गया था ।
लगभग डपटते हुए ही पांडेयजी ने रोबदार आवाज में कहा ” पहले मेरी बातों का जवाब दो । तुमने मुनीर को देखा था ? ”
” जी नहीं साहब ! वह तो कल यहां आया ही नहीं । आया होता तो हमसे जरूर मिलकर जाता । आपको कोई गलतफहमी हुई होगी । ”
” कोई गलतफहमी नहीं हुई है । ये मोहतरमा बता रही हैं रात वह आया था और बड़े सवेरे मुंह अंधेरे चला भी गया ”
हैरान होनेवाले लहजे में रामु ने शबनम की तरफ देखा जो अब भी लगातार रोये जा रही थी । ” ये साहब क्या कह रहे हैं बहू ? मुनीर रात यहां आया था ? ”
” जी रामु काका ! अचानक आये थे और कुछ बताया भी नहीं और सुबह मेरे उठने से पहले ही मुझसे मिले बिना ही चले भी गए । ”
सारे मामले को समझने की कोशीश करते हुए रामु काका ने मोर्चा संभालते हुए पुछा ” लेकिन साहब ! आपने बताया नहीं , हुआ क्या है ? ”
” खबरें नहीं देखते क्या टी वी पर ? ”
” अरे साहब ! क्यों मजाक कर रहे हैं ? आप अभी गांव में बैठे हैं और आप एक गांववाले से बात कर रहे हैं । ”
भडकते हुए पांडेयजी बोले ” क्या मतलब है तुम्हारा ? ”
” अजी साहब ! इस देहात में मोबाइल से बात करने के लिए जहां हमें छत पर सबसे ऊंचे जाकर बात करना पड़ता है नेटवर्क के लिए , जहां चौबीस घंटे में बिजली मुश्किल से बारह घंटे आती हो और वो भी अपनी मर्जी से वहां टी वी पर खबरें देखने की बात करना मजाक नहीं तो और क्या है साहब ? ” रामु काका ने भी मौका मिलते ही अपने दिल की भड़ास निकाल ली थी ।
झेंपते हुए पांडेय जी ने कहा ” ठीक है ठीक है ! अब ज्यादा ज्ञान न बघारो और सुनो अपने मुनीर की करतूत । ”
” करतूत ? ” रामु काका ने हैरत से पांडेय जी के शब्दों को दुहराया था । उसके शब्द सुनकर शबनम के भी कान खड़े हो गए थे ।
लेकिन इस सब की तरफ ध्यान दिये बिना पांडेय जी ने कहना जारी रखा ” हाँ करतूत ! उसने जो किया है उसे करतूत ही कहा जायेगा । रामनगर प्रतापगढ़ राजमार्ग पर कल शाम एक नागरिक से झड़प में मुनीर के हाथों वह आदमी बहुत ज्यादा घायल होकर रामनगर के सिटी अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है । उसकी हालत गंभीर बताई जा रही है । ”
पूरी बात सुनकर रामु काका के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ने लगीं लेकिन फिर भी हिम्मत न हारते हुए उन्होंने पांडेय जी से पूछ ही लिया ” साहब ! लेकिन वह अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए ही तो उस आदमी से भिड़ा होगा ? ऐसे में उसे अपराधियों की तरह खोजने का क्या मतलब ? ”
” अगर वह अपने कर्तव्य को पूरा करते हुए किसी आदमी को मार भी दे तो हमारा पूरा महकमा उससे सहानुभूति दिखायेगा लेकिन बात वैसी है नहीं जैसी तुम समझ रहे हो । ” पांडेय जी ने समझाने वाले अंदाज में कहा था । और फिर उठकर घर से बाहर निकलते हुए रामु काका को अपने साथ आने का इशारा करते हुए घर से दूर एक पेड़ के नीचे खड़े हो गया । रामु काका पीछे पीछे पेड़ के नीचे जा पहुंचे थे । शबनम के साथ ही गांववाले भी तरह तरह के कयास लगाने लगे ‘ ये दारोगा आखिर रामु काका को क्या बताना चाहता है जो हम लोगों को नहीं बताना चाहता । ‘
बहुत खूब ! कहानी बहुत विस्तार पा रही है और रोचकता बनी हुई है. आगे क्या होगा इसकी जिज्ञासा हमेशा रहती है.
आदरणीय भाईसाहब ! आपने समय निकालकर कहानी पढ़ी तथा उत्साहजनक प्रतिक्रिया लिखी इसके लिए आपका हृदय से धन्यवाद ।
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, इस कड़ी के हीरो पांडेय जी अपनी भूमिका एकदम सही पुलिसियाना अंदाज़ में अदा कर रहे हैं. कभी नरम. कभी गरम और कभी तिलस्मियाना. लाजवाब कड़ी ने उत्सुकता को और अधिक बढ़ा दिया. इंसानियत के प्रति जागरुक करने वाली, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय बहनजी ! आपने सही कहा है पांडेय जी के किरदार के रूप में मैंने पुलिस की कर्तव्यपरायणता दिखाने की कोशश की है जो अपने जांच के दायरे में परिचित व अपरिचित में मतभेद नहीं करते । बेहद सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद ।