गीतिका/ग़ज़ल

गज़ल

“गज़ल”

देखता हूँ मैं कभी जब तुझे इस रूप में
सोचता हूँ क्यों नहीं तुम तके उस कूप में
क्या जरूरी था जो कर गए रिश्ते कतल
रखके अपने आप को देखते इस सूप में।।

देख लो उड़ गिरे जो खोखले थे अधपके
छक के पानी पी पके फल लगे बस धूप में।।

छोड़ के पत्ते उड़े जो देख पीले हो गए
साख से जो भी जुड़े हैं सभी उस रूप में।।

तेज झोंका झेलकर झूमता है वो खड़ा
क्या कहूँ कि हर गिला शांत है बस चूप में।।

मन तुम्हारें कौन सा अंकुरण उगने लगा
बैठ तो इस डाल पर नित झूमती सरूप में।।

द्वंद घर्षण बाग में गौतम रगड़ती डालियाँ
पर न कोई भी धड़ा दिखता विवस कुरूप में।।

महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ