संतो के संत बाबूजी महाराज (भाग – २ )
३१ अक्टूबर १९४४ ; लालाजी (बाबूजी के गुरु जी) को चेतना के सभी स्तरों पर अधिकार था । जागृत अथवा सुप्त अवस्था में भी वह काम करते थे । मुझे कार्य करने के लिए वही क्षमता दी गयी ।
१ नवम्बर १९४४ : लालाजी ने बताया तुम वह यंत्र हो जो प्रकृति को निर्बल या सबल बना सकता हो ।
२ नवम्बर १९४४ : मथुरा को आलोकित करने और यमुना का बहाव बदलने के आदेश मिले । मुझे अनुभव हुआ चक्रों की कौन कहे शरीर के प्रत्येक रोयें से मैं प्राणाहुति दे सकता हूँ ।
४ नवम्बर १९४४: मथुरा के लिए प्रस्थान । ५ नवम्बर १९४४: लालाजी : वृन्दावन का प्रत्येक स्थल आलोकित करना । यहाँ राधाकुंड है जाकर उसे फिर से पवित्र बनाना । कृष्ण जी ने लालाजी की आज्ञानुसार काम करने को कहा । कान्यकुब्ज का अनुभव की हृदय प्रेम से भर उठा और यह स्थान ध्यान के लिए अच्छा है इत्यादि बताने पर लालजी ने कहा यहाँ हर कदम पर भगवान् श्रीकृष्ण का अनुग्रह भरा हुआ है ।
६ नवम्बर १९४४ : भगवान् श्रीकृष्ण : द्वारकाधीश के मंदिर के नीचे एक जगह है जिसे तुम्हें देखना भालना है । जहाँ तुम बैठे हो वहां से एक हाथ पश्चिम पर मेरा नाल गाड़ा गया था । तुम सही जगह पर बैठे हो ।
८ नवम्बर १९४४ : वृन्दावन से मथुरा वापस आया । भगवान श्रीकृष्ण ने मेरे कामों पर अपनी ख़ुशी जाहिर की । मेरे प्राण पर संकट के कारण मथुरा में कई जगह जाने से मुझे रोक दिया गया । मैं जहाँ ठहरा था वहीँ से सारे स्थानों को आलोकित करने का मुझे आदेश मिला ।
९ नवम्बर १९४४: गोवर्धन गया । जहाँ जहाँ से होकर मैं जा रहा था उन सब जगहों को आवेशित करने की मुझे आज्ञा दी गयी । प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण स्थानों और जिनको मुझे पावन करना था का नक्शा मेरी नजर में आया । मुझे लगा जूते पहन कर गोवर्धन पर चढ़ना भद्रता के विरुद्ध होगा इसलिए मैंने जूते उतार दिए । शून्य से प्रकाश की एक विशाल धारा मेरे अंदर प्रवेश कर गयी और मेरे शरीर से सारे पर्वत पर आलोक फैलाती हुई बहने लगी । राधाकुंड को आलोकित करने और उसमें पैर धोने की आज्ञा मिली ।
१३ और १४ नवम्बर १९४४ : महाबन वो जगह है जहाँ कृष्ण जी अपने सखा और गायों के साथ बैठा करते थे । यह वह टीला है जहाँ वे ग्वालों के साथ बैठा करते थे । मुझे लगा कृष्ण जी टीले के बीचों बीच बैठे बांसुरी बजा रहे हैं । ग्वाल बाल उनके चारों और बैठे हैं, उसके नीचे गायें थी । कृष्ण जी ने मेरी जानकारी को ठीक बताया ।
१६ नवम्बर १९४४ : नंदगाँव में कुछ पवित्र स्थानों का पता चला । मुझे रामेश्वरम जाने की आज्ञा हुई । लालाजी : प्रकृति की सारी शक्तियां तुम्हारे जिम्मे कर दी गयी हैं । यात्रा के बीच सारे ब्योरे मिलेंगें । धरती पर पेड़ पौधे काम होते जा रहे हैं , तीर्थ स्थान दूषित हो रहे हैं , भौतिक हालत बिगड़ गयी है , लोग इच्छाओं के दास होते जा रहे हैं । जाती का अहंकार बढ़ रहा है । जो भी दोष हैं तुम्हें सब हटाने हैं । कृष्ण जी ने बताया की सबसे पहले समुद्र से दक्षिण पठार ही बाहर निकला था और भारत की सभ्यता का आरम्भ यहीं से हुआ था ।
२५ नवम्बर १९४४: मुझे राजनैतिक परिवर्तन लाने की आज्ञा मिली । लालाजी ने लम्बे काल तक मुझे इस काम के लिए प्राणाहुति दी । मुझे अनुभव हुआ मेरे शरीर के प्रत्येक कण में ऊर्जा भरी जा रही है ।
१ दिसम्बर १९४४ : राधा जी ने अंत: संपर्क स्थापित कर मुझे अपने कुछ संस्मरण सुनाये । स्वामी विवेकानंद जी ने अंत:संपर्क किया और मेरी दशा और मेरे किये काम पर संतोष प्रकट किया । राधा जी और स्वामी विवेकानंद जी दोनों ने बताया की ध्यान की जो विधि उन्होंने अपनाई थी वो यही थी जो हमारी संस्था में अपनाई जाती है । स्वामी विवेकानंद ने अपनी संस्थाओं के भी कुशल क्षेम का ध्यान मुझसे रखने को कहा । कहा की जब कभी मुझे उनकी जरूरत होगी वे मेरे पास आ जायेंगें ।
२ दिसम्बर १९४४ : कबीर जी ने भी मुझसे अपने मिशन को दुरुस्त करने को कहा ।
४ दिसम्बर१९४४ : अगस्त्य मुनि ने मुझे सूचित किया की उन्होंने मेरे काम के लिए दक्षिण में क्षेत्र तैयार कर दिया है मुझे अति शीघ्र वहां जाने को कहा ।
११ दिसम्बर १९४४ : चैतन्य महाप्रभु ने कहा की मेरी सारी आशाएं तुम पर टिकी हुए हैं उन्होंने मुझे उड़ीसा जाने की आज्ञा दी । स्वामी विवेकानंद जी ने हमारे देशवासियों की पाश्चात्य सभ्यता की नक़ल पर असंतोष प्रकट किया ।
१७–१८ दिसम्बर १९४४ : आज मैं मद्रास पहुंचा । रास्ते में मुझे दक्षिण पठार को आलोकित करने की आज्ञा मिली ।
बाबूजी आश्रम मद्रास
मद्रास नगर को आलोकित करने का काम मैंने समाप्त कर दिया । रामेश्वरम प्रस्थान की आज्ञा मिली ।
२२ दिसम्बर १९४४: (रामेश्वरम) स्वामी विवेकानंद जी ने मुझे बधाई दी और कहा मेरा कार्य प्रशंसनीय रहा । रामेश्वरम का मंदिर सोचनीय दशा में था । ऐसा लगा की वहां कोई मर गया हो । लक्ष्मीकुंड, सीताकुंड, रामकुंड सब आलोकित किये गए ।
३ जनवरी से २१ जनवरी १९४५ : बैंगलोर, मैसूर, बैलूर मंदिर, हैदराबाद, होकर आ गया । मनमाड से बम्बई तक के सारे क्षेत्र , सूरत स्टेशन निकल जाने पर गुजरात को भी आलोकित करने का आदेश मिला ।
२३ जनवरी १९४५ : कृष्ण भगवान ने द्वारका आलोकित करने की आज्ञा दी और बताया यह वह प्रदेश है जिसके एक भाग को समुद्र बहा के ले गया है । ओखा दुर्ग जाओ और उसे आलोकित करो ।
२९ जनवरी १९४५ : आज मथुरा पहुंचा । कृष्ण जी ने मेरे कार्य की प्रशंसा की और कहा की उत्तर भारत के काम की शुरुआत दिल्ली से हो ।
२ फरवरी १९४५: शाहजहांपुर पहुंचा, लालाजी ने सलाह दी आध्यात्मिक प्रशिक्षण के लिए एक संस्था बनाओ और मुझे स्वामी विवेकानंद जी से सलाह लेने की आज्ञा दी ।
विलक्षण जानकारी ! बाबूजी तथा आपको भी प्रणाम !!
मुझे दो-तीन बार नंगे पैर गोवर्धन की परिक्रमा करने का सौभाग्य मिला है.
आदरणीय सिंघल जी,
लेख को पढ़ने और सराहने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । आज जहाँ ढोंगी बाबा सर्वत्र फैले हुए हैं और जनता उनके पीछे पागल है ऐसे समय ऐसा लेख लिखना मुझे समसामयिक लगा ।
प्रिय रविंदर भाई जी, आपके ब्लॉग्स बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देते हैं. पवित्र आत्माओं को कुदरत द्वारा हर तरह की आत्मिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान की जाती है, इससे वे किसी भी घटना का सही अनुमान भी लगा सकते हैं और बिना अतिरिक्त प्रयास के संसार को सही रास्ता दिखा सकते हैं. उनकी कुण्डलिनी जागृत होती है. ऐसा ही बाबूजी और उनके गुरुजी के साथ भी हुआ. नायाब प्रतिक्रियाओं की तरह नायाब, अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका आभार.
आदरणीय लीला बहन जी,
आपकी प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत आभारी हूँ । बाबूजी कहते थे जो पहुंचा
है सिर्फ वही तुम्हें पहुंचा सकता है व्यर्थ किसी और के पास समय गवाना
बेवकूफी है ।
प्रिय राजकुमार भाई साहब जी,
आपको बाबूजी का गोवर्धन चढ़ते समय जूते उतार कर चढ़ना उनकी सादगी उनकी
श्रद्धा का प्रतीक लगा । यह सच है की बाबूजी के मन में अपने गुरु के प्रति अपने
से बड़ों के प्रति विनम्रता कूट कूट कर भरी थी । पहले मैं और लिखने के लिए झिझक रहा था । अगली कड़ी में कुछ ख़ास ख़ास बाते बताने की कोशिश करूंगा ।
रवेंदर भाई ,बाबा जी के बारे में पढ़ कर बहुत अच्छा लगा . ऐसे मह्न्पुर्ष दिया हाथ में ले कर ढूँढना भी मुश्किल है . यह ढोंगी बाबा जो आज कल चर्चा का विषय है, जो इन के शर्धालू थे, जिहोने अपार श्रधा से तन धन मन निशावर कर दिया, उन को कितनी ठेस पहुंची होगी, कोई जान नहीं पायेगा . बहुत लोग सारी जिंदगी इस अंध श्रधा में बतीत कर देते हैं, जब असलीअत का पता चलता है तो किसी को बता भी नहीं सकते .इसी को तो कलयुग कहते हैं .
प्रिय गुरमेल भाई साहब जी,
आपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत आभारी हूँ । यह ढोंगी बाबा लोगों की
मानसिकता से भली भाँती परिचित होते हैं वे किस्से खुश होते हैं ।
बाबा लोग उन्हें वही देते हैं जो उन्हें चाहिए, फिर नशे की गोलिया
खिला खिलाकर जिंदगी भर का गुलाम बना लेते हैं । बाउजी महाराज का कहना था भौतिक चीजों के लिए मेरे पास न आओ । मैं तो सिखाऊंगा की मांगने की आदत कैसे छोड़ो । ऐसे लोगों के पास कितने लोग आयेंगें, परन्तु आज देश विदेश के बाबूजी के आश्रमों में एक भी ऐसा किस्सा नहीं हुआ ।
आदरणीय रविंदर भाई जी ! बेहद सुंदर वर्णन ! बाबाजी का गोवर्धन चढ़ने से पहले जूते निकालना उनकी अपार श्रद्धा को दर्शाता है । एक और आध्यात्मिक कड़ी के लिए आपका धन्यवाद ।