व्यंग्य विधा की वेधशाला है ‘अट्टहास’#(पत्रिका समीक्षा)
आज के वेब या अनलाइन युग में व्यंग्य पत्रिका का प्रिंट प्रकाशन काफी जोखिम भरा दुर्लभ काम है।
किन्तु विगत अठारह वर्षो से नजाकत व नफासत के शहर लखनऊ से नियमित हास्य व्यंग्य की एक अनूठी पत्रिका निकलती है “अट्टहास”।
संपादिका शिल्पा श्रीवास्तव एवं प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव के नेतृत्व में वर्ष 2000 से प्रकाशित होने वाली अट्टहास अपने नाम के अनुरूप पाठकों व लेखकों में काफी चर्चित है।ख्याति लब्ध यह पत्रिका हास्य-व्यंग्य पर केन्द्रित राष्ट्रीय स्तर की एक ऐसी पत्रिका है जो हास्य व व्यंग्य विधा पर नवीन प्रयोगो के कारण काफी चर्चा में रहती है।
युवा व्यंग्य विशेषांक”हो, व्यंग्य की तीन पीढ़ियों के समागम वाला विशेषांक हो , महिला व्यंग्यकारों पर केंद्रित विशेषांक हो या व्यंग्यजगत में अंतर्विरोध वाला विशेषांक । अट्टहास हमेशा ही व्यंग्य साहित्य की कसौटी पर खरी उतरी है।
इन सबसे बढ़कर ये बात ज्यादा मायने रखती है कि रचनाओं एवं रचनाकारों के बीच पारदर्शिता बनी रहे इसलिए इन विशेषांकों के संपादन का दायित्व अतिथि संपादकों को सौंपा जाता रहा है।
प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव जी का उपरोक्त प्रयोग काफी हद तक सफल भी रहा है।
सुभाष चन्द्र, शशिकान्त सिंह शशि, आलोक पुराणिक, शशि पांडेय ,एम एम चंद्रा आदि के आतिथ्य संपादन में अट्टहास के बेहतरीन, पठनीय,संग्रहणीय शानदार अंक पाठकों को उपलब्ध कराए गए है। भविष्य में अरूण अर्णव खरे के आतिथ्य संपादन में एमपी के व्यंग्यकारों पर केंद्रित विशेषांक की भी योजना है।
हालिया प्रकाशित ‘अट्टहास’ का जुलाई अगस्त एवं सितंबर का विशेषांक क्रमशः व्यंग्य जगत में ‘अंतर्विरोध’, ‘अंतर्दृष्टि’ व ‘व्यंग्य परिदृश्य’ पर आधारित था।
पत्रिका के प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव जी ने एक बार फिर से अपने प्रयोगात्मक व्यवहार के तहत इन विशेषांको के चुनौतीपूर्ण संपादन की जिम्मेदारी अतिथि संपादक एम एम चंद्रा को सौंपी थी।
व्यंग्य में अंतर्विरोधो पर आधारित हाल में प्रकाशित अट्टहास के तीनों अंक ने भारत के कई प्रमुख व्यंग्यकारों व बुद्धिजीविओं को व्यंग्य विधा पर खुलकर अपने विचारों व अनुभवों को साझा करने का एक बेहतरीन मंच दिया।
जिसका परिणाम है व्यंग्य अंतर्विरोध, व्यंग्यअंतर्दृष्टि व व्यंग्य परिदृश्य पर केन्द्रित ‘अट्टहास’ जुलाई,अगस्त एवं सितंबर के शानदार अंक।
व्यंग्य जगत की इन तीन धरोहर विशेषांकों में विभिन्न व्यंग्यकारों,साहित्यकारों,समीक्षकों आलोचकों व बुद्धिजीवियों ने बढ चढकर अपने विचारों को साझा किया है।किसी ने व्यंग्य विधा क्षेत्र मे उज्जवल भविष्य को तो किसी ने यशस्वी युवा पीढ़ी मे भरपूर संभावनाओं को देखा तो किसी ने
व्यंग्य जगत मे पनप रहे गतिरोध ,अंतर्विरोध व मतभेद पर चिंता जाहिर की।तो किसी ने समकालीन व्यंग्य लेखन व समकालीन व्यंग्य के हस्ताक्षरों पर खुलकर अपने विचारों को शब्दरूप दिया।
यह अट्टहास की ही पहल थी कि भारत के नामचीन व नवोदित, वरिष्ठ व युवा सभी वर्ग के लेखकों ने व्यंग्य विधा की संभावनाओं व चुनौतियों पर अपने मंतव्यों को अट्टहास के माध्यम से सुधि पाठकों तक पहुँचाने का सफल प्रयास किया।
अंकों के तहत प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव जी ने संपादकीय में इस बात की चर्चा की है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जनमानस व्यंग्य के ‘इशारों’ मे अभिव्यक्त कथ्य व तथ्य वाले स्वरूप को साहित्य अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों से ज्यादा तवज्जों देने लगे है।साथ ही उन्होंने अंतर्विरोधो की शिकार हो रही साहित्य की सशक्त विधा पर गहरी चिंता भी जताई है।
बकौल अतिथिसंपादक एम एम चंद्रा “व्यंग्य यथास्थितिवाद से आगे का चिंतन है और आने वाले समय में साहित्य की इस विधा में बेहतर संभावनाएं है”।
किंतु वे इस तथ्य को भी स्वीकारते हैं कि वर्तमान परिदृश्य में कसौटी व विश्वसनीय विधिमानकों के अभाव में व्यंग्य का मूल्यांकन कर पाना एक जटिल समस्या ही है।
व्यंग्य पुरोधा ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने आलेख में सपाट बयानी एवं व्यंग्य को दो अलग अलग क्षेत्र मानते हुए सपाट बयानी को व्यंग्य मानने से इंकार किया है।
अनूप शुक्ल जी की नई पीढ़ी व पुरानी पीढी के बीच के अंतर्विरोध पर की गई टिप्पणी पठनीय के साथ साथ शोचनीय भी है।
व्यंग्य को तीक्ष्ण कांटा व विष बुझा तीर समझने वाले यशवंत कोठारी का मानना है कि यदि व्यंग्य की चासनी मे हास्य-व्यंग्य का छौंक लगाया जाय तो व्यंग्य का स्वाद फीका हो जाता है।
पारसाई जी को व्यंग्य का तत्पुरूष मानने वाली शशि पुरवार का विचार है कि नए व्यंग्यकार नवीन
रसों से व्यंग्य व्याकरण को नया आयाम तो देना चाहते है किंतु व्यंग्य जगत में गंदी राजनीति के सेंध से व्यंग्य की गति विकलांग हो रही है। पुरानी पीढी एवं नई पीढ़ी के बीच पनप रहे भेदभाव व भाईभतीजावाद की उन्होंने तल्ख शब्दों में निंदा की है।
बिना गहरी पकड़,समझ व अध्ययन के व्यंग्य विधा की किसी रचना के आलोचना की सत्यता पर सवाल उठाने वाले फारूक अफरीदी ने अपने आलेख में स्पष्ट लिखा है कि आलोचना की एक सशक्त पीढ़ी तैयार करने में अभी कुछ समय और लगेगा।
हरीश नवल ने अपने संक्षिप्त आलेख में युवा पीढ़ी में व्यंग्य के बेहतर भविष्य को देखा है।
परिवर्तनशील समाज की विसंगतियों की पोल खोलने में व्यंग्य के सशक्त योगदान को स्वीकार करने वाले अशोक गौतम के आलेख में समकालीन व्यंग्य लेखन व लेखकों पर गहरी पैठ स्पष्ट नजर आती है।
वरिष्ठ व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने अपना मत रखते हुए कहा है कि जन सारोकार से प्रतिबद्ध व्यंग्य लेखन को राजनीतिक,सामाजिक सहित सभी प्रकार के पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए साथ ही वे इस तथ्य को भी स्वीकारते हैं कि व्यंग्य लेखन किसी खूंटे से बंधा नही है।
कबीर,तुलसी,भारतेन्दु, परसाई, शरद जोशी सहित अनेकानेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में व्यंग्य के तंज पर तत्कालीन भारत की समाजिक व राजनीतिक विसंगतियों को जनमानस तक पहुँचाने में महती भूमिका निभाई है जो निरंतर जारी है और अनवरत चलती रहेगी।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि व्यंग्य विधा की विभिन्न विषयों पर केंद्रित ‘अट्टहास’ के ये तीनों अंक पठनीय व संग्रहणीय है और शोधार्थियों के लिए भविष्य में व्यंग्य पर शोध हेतू एक सशक्त अवसर प्रदान करता है।
जहां एक ओर इन नवीन प्रयोगों के तहत ‘अट्टहास’ को विशेषांक का रूप देने में प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव जी की दूरदर्शिता व व्यंग्य विधा के प्रति उनका समर्पण स्पष्ट दिखाई देता है वहीं दूसरी ओर रचनाओं के चयन व संकलन में अतिथि संपादक एम एम चंद्रा जी का अनुभव व मेहनत का बेजोड़ सामंजस्य साफ दृष्टिगोचर होता है।
इस पत्रिका के एक अंक का मूल्य महज बीस रूपये है।पत्रिका के वार्षिक व त्रैमासिक सदस्यता की भी सुविधा है।जो प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव जी( 09335276946) के संपादकीय पते 9,गुलिस्तां कालोनी लखनऊ से प्राप्त की जा सकती है।
— विनोद कुमार विक्की