खींचतान
ढांचा खड़ा था, सांस चल रही थी;
हँस हँस तड़फती वह मर रही थी।
देखा जो उसको तड़फ कर तड़फती;
भू पर पड़ी न गगन मे खड़ी थी।
दो प्रेमियों के करों पर तनी थी;
इधर उधर खींचा तानी हो रही थी;
वह दोनों से खुश न अनमनी थी।
भरे चौराहे पर उसकी फजीहत हो रही थी;
अनजान जनता करतल ध्वनि कर रही थी।
क्योंकि ?
उस वक्त प्रजातन्त्र की मीटिंग चल रही थी;
मीटिंग के वक्तव्य ये एलान कर रहे थे;
संसद मे संस्कारों का चालान कर रहे थे।
राजनीति की हत्या खुले आसमान कर रहे थे;
प्रजा-तन्त्र का अपमान कर रहे थे।।
अज्ञान जनता के पल्ले कुछ न पड़ा था;
वह धूप टेंट मे खचाखच बैठा खड़ा था।
नीतिज्ञों की मन ही मन बड़ाई कर रहा था ; राजनीतिज्ञ कूटनीतिज्ञ का दर्जा दे रहा था।
उनके कारनामों को विचारने का ज्ञान नही था;
जनता को विचारों से नही कार मोटरों से लगाव था। वे तो दिल से उन्हें ईष्ट मान चुके थे;
अपने को आत्म समर्पण कर चुके थे।
अब उनमे यह सामर्थ्य न थी;
कि वे कहते आपने यह गलत बात की।
जनता को ब्लैक मेल कर रहे थे;
नीति के सहारे राजनीति को बदनाम कर रहे थे।
उनकी सुनकर षड्यंत्रकारी रीति;
मैंने विचारा ये कैसी राजनीति;
जो जन को चैन न दे पाये।
रोते न्याय का दरवाजा खटखटाये;
उसकी गुहार सुनकर यही ठुकराये।
और कहें जाओ नोट की गड्डी लाओ;
तब काम हो पाये।।