कविता
बढ़े चलो बढ़े चलो
विहंग दिव्य दृष्टि से,
उमंगों की वृष्टि से।
लक्ष्य को तुम साध लो,
विपत्तियों को बांध लो।
नित नए आरोह पर,
बढ़े चलो बढ़े चलो।
उमंग से भरे रहो,
घमंड से परे रहो।
चांदी सा चमक उठो,
गुलाब सा महक उठो।
नित अपनी मंजिल को,
बढ़े चलो बढ़े चलो।
ओज हो प्रकाश हो,
सबको तुमसे आस हो।
चांद सा शीतल बनो,
मृगेंद्र सा सबल बनो।
उन्नति के श्रृंग पर,
बढ़े चलो बढ़े चलो।
?अनुराग कुमार
खुटहा बाजार, महाराजगंज (उ०प्र०)
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