ग़ज़ल : कितने बेरहम है मेरे अपने
कितने बेरहम है मेरे अपने , बेदम कर के ही माने
इश्क की झूठी तसल्ली चाही , वो गम दे के ही माने
अश्क ना भीगे गम की बरषा में ,सपने बिखरने से
वो शराब में नहाने की चाह को सितम दे के ही माने
जीने की चाह ने छोड़ दी शराब और शबाब दोनो ही
तन्हाइयो में गुनगुनाने को , वो रुदन कह के ही माने
कितने बेरहम है मेरे अपने , बेदम कर के ही माने
इश्क की झूठी तसल्ली चाही , वो गम दे के ही माने
मोहब्बत उठ गई हिलक – हिलक मेरे कांधो से ही
डोली में बैठते ही उसके , वो बेरहम कह के ही माने
रहमत की दुहाई देने वालो से जब अपना मुकाम पूंछा
हर महकमे को वो बेमुरऊअत हरम कह के ही माने
संदीप ” संघर्ष ”
06/09 /2017