लेख– जनप्रतिनिधियों की भी आयु-सीमा निर्धारित की जाए
राम धारी सिंह दिनकर की ये चंद पंक्तियां आज की राजनीतिक व्यवस्था के लिए ही शायद कही गई थी।
सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे , तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। आज की स्थिति में हमारे लोकतंत्र में यही सूरतेहाल दिख रहा है। सिर्फ़ विडंबना है, तो यह कि जनता भी अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति निष्क्रिय हो गई है। या यूं कहें, जनतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति ने उसे अपंग बना दिया है। आज वह सिहासन को खाली करवाने की अपनी ताकत भूल गई है, शायद, तभी राजनीतिक पंच आज हुकुमचंद बन मलाई मार रहे हैं। देश की विडंबना देखिए, मजदूर, ग़रीब, आम जनमानस अपनी गरीबी और दुश्वारियों से तंग है, और आज़ादी के सात दशक बाद माननीयों को जनतंत्र की फ़िक्र नही, उन्हें तो अपने लोटे की फ़िक्र है। कब उनका लोटा भरेगा। जनमानस की सेवा का संकल्प लेने वाले जननेता सत्ता मिलते ही सत्ताधीश बन जाते हैं। आज क्या हमारी लोकतांत्रिक आवाम की दिक्कतें ख़त्म हो गई? आज भी हमारे समाज में दाना माझी, और दसरथ माझी जैसे लोग मौजूद हैं, जो अपने लिए ख़ुद कुंआ खोदने और पानी पीने को मजबूर हैं। फ़िर किस विकास का गुणगान किया जाता है? स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता के शिकार देश के नौनिहाल होते हैं, फ़िर किस मुँह से संसद के सदस्यगण अपनी झोली को फैला देते हैं? वैश्विक उन्नति के दौर में गरीबी की लक्ष्मण रेखा 32 रुपए, और ख़ुद माननीयों को सेवानिवृत्त के बाद अनुदान और पेंशन भत्ते भी चाहिए। धन्य हो देश की इस अंधी लोकव्यवस्था का जिसमें अपना पेट भरने के अलावा सामाजिक सरोकार की भावना विलुप्तप्राय हो गई है।
आज के वक्त में जब देश के हर कोने से माननीयों के वेतन बढ़ाए जाने की आवाज बुलंद हो रही है। उस वक़्त अकेले वरुण गांधी की आवाज़ से ऐसा लगा, कि अभी भी देश की राजनीति में जननेताओं का पूर्णतः अकाल नहीं आया है। वरुण गांधी का शून्यकाल के दौरान बोला गया वक्तव्य कि सांसदों के प्रदर्शन बिगड़ने के बावजूद इनकी आमदनी में पिछले दशक में 400 फ़ीसद की बढोत्तरी हुई है। लोकसभा में शून्यकाल के दौरान सांसदो की सैलरी का मुद्दा उठाते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे समय में जब तमिलनाडु में किसान आत्महत्या कर रहे थे और राज्य के किसानों ने अपने साथी किसानों की खोपड़ियों के साथ दिल्ली में प्रदर्शन किया, उस परिस्थिति में भी तमिलनाडु की विधानसभा ने बेरहमी से असंवेदनशील अधिनियम के माध्यम से अपने विधायकों की सैलरी को दोगुना कर दिया है। जब यह तथ्य एक चुना हुआ प्रतिनिधि कह रहा है। फ़िर आज की राजनीतिक दशा कितनी दयनीय हो चुकी है, और चुनावी बहार में जननेता बनने वाले किस तरह जनतंत्र में अपना घड़ा भरने में लगे हैं, और देश के जनतंत्र के प्रति इनका क्या रुख़ है। इसका सहज आंकलन किया जा सकता है।
इतना ही नही वरुण गांधी की बातों को विश्लेषित करें, तो गूढ़ अर्थ उभर कर सामने आते हैं। उनके मुताबिक पिछले 15 वर्षो में संसद में लगभग 41 फ़ीसद मुद्दों पर विचार- विमर्श नहीं हुआ। फ़िर ये जनता के हितैषी बनने वाले नुमाइंदे क्यों देश को लोककल्याण के नाम पर चुना लगा रहें हैं? जनता को आज भी कालजयी समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है, जो राजशाही व्यवस्था में हो रहीं थी, फ़िर दोनों में क्या अंतर हुआ। सब अपने घर ही भरने पर उतारू हैं, तो लोकतंत्र के पैमाने का क्या मतलब? जनता आज भी दूर-दराज के क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाओं, रोटी, कपड़ा, सड़क, बिजली, पानी को मोहताज़ है, और इन माननीयों को दिल्ली की हवा क्या लग जाती है, ये अपना वजूद भूल जाते हैं। समस्या खड़ी होने का सबसे बड़ा कारण यहीं है। अगर इन माननीयों को अपना घर भरने की ही फ़िक्र रहती है, फ़िर ये लोकतंत्र में जनहित के मुद्दों को चुनते क्यों हैं? लोगों को विकास और सुविधाओं का लॉलीपॉप क्यों दिखाते हैं? अगर पेंशन और भत्ते की इतनी ही चाह होती है, फिर कोई सरकारी नौकरी क्यों नहीं चुनते? इसके इतर भी पेंशन और भत्ते की चाह है, तो फ़िर एक निर्धारित उम्र के तकाज़े के पश्चात जनता के खजाने से दूरी क्यों नहीं बनाते? अगर सरकारी नौकरी वालों के लिए उम्र की सीमा निर्धारित है, फ़िर राजनेता उनसे अलग क्यों?
इसके अलावा वरुण गांधी की बातों से स्पष्ट होता है, कि जहां ब्रिटेन में पिछले एक दशक में जनप्रतिनिधियों के वेतन में लगभग 13 फ़ीसद की बढोत्तरी हुई, वही हमारे यहां 400 फ़ीसद की बढोत्तरी उसी कालावधि में हुई, उसके बाद भी अगर सांसदो की भूख शांत नहीं हुई, तो एक आम भारतीय आवाम होने के नाते उनको एक निजी सलाह है, कि वे इतने ही काबिल और कुशल हैं, तो क्यों न राजनीति छोड़ कोई निजी कंपनी से जुड़ जाए, क्योंकि राजनीति धन कमाने का अड्डा नहीं, सामाजिक सरोकारिता और जनहित में कार्य करने की शरणस्थली होती है। आज जिस स्थिति में हमारा देश है, क्या उसे अन्य विश्व के देशों से कुछ सीख नहीं लेनी चाहिए। हमारे गणमान्य नेता जी अपने लिए तो पेंशन और वेतन वृद्धि की मांग करते हैं, लेकिन क्या कभी दाना माझी, और आत्महत्या करते मजदूरों के प्रति देखने की कोशिश की है। सत्ता में आते ही जो चारों तरफ़ हरियाली दिखने का रोग हमारी व्यवस्था को लगा है, उसको दूर करना होगा, तभी हम विश्व का नेतृत्व करने की दिशा में बढ़ सकते हैं। अभी तो हमारी ख़ुद की थाली में हज़ारों छेद हैं, फ़िर हम विश्व का नेतृत्व कैसे कर सकते हैं।
जिस देश में युवाओं की एक ऐसी बड़ी जमात खड़ी हो गई है, जिससे देश उन्नति के शिखर पर चढ़ सकता है, अगर उसे ही सुविधाएं मयस्सर नहीं हो रही, फ़िर ख़ाक देश प्रगति कर रहा है। वरुण गांधी ने कहा कि जब ब्रिटेन जैसे सबसे लोकतांत्रिक देश में सांसदों के वेतन में बढ़ोतरी की निगरानी के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकरण है जिसमें गैर-सांसद सदस्य शामिल होते हैं। इसके अलावा अगर फ्रांस में शासकीय कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष है तो वहां के सांसदों को 60 वर्ष के होने के बाद ही पेंशन मिलती है। फ़िर हमारे देश की व्यवस्था उन देशों की व्यवस्था का अनुकरण क्यों नहीं करती? आख़िर संविधान के निर्माण में भी तो विचारों को अन्य देशों से लेकर समाहित किया गया है। तो ऐसे में देश के भीतर भी एक ऐसा तंत्र बने, जो योग्यता और आवश्यकता को ध्यान में रख कर सांसदों का वेतन निर्धारित करें, क्योंकि अभी जो अपनी लाठी अपनी भैंस की रीति चली आ रहीं है। वह एक जनतांत्रिक व्यवस्था में सही नहीं है।
देश में अभी भविष्य रूपी वर्तमान तक शिक्षा की उचित पहुँच नहीं, स्वास्थ्य से खस्ताहाल देश का भविष्य अस्पताल में दम तोड़ रहा है। बिजली, पानी की समस्या के साथ सिर पर छत भी देश में उपलब्ध नहीं हो रही। फिर कुछ तो इन नुमाइंदों को अपनी स्थिति को छोड़कर देश के बारे में सोचना चाहिए। इसके साथ जिस तरह नेता जी फ़न फ़ैलाकर सियासत की गद्दी पर बैठ जाते हैं, वह परम्परा भी त्यागना होगा, क्योंकि देश को वर्तमान लोकशाही व्यवस्था रोजगार भी नहीं दिला पा रही है। ऐसे मे अगर नए लोगों को राजनीति में जगह मिली तो देश को नए अनुभव और कुछ स्तर पर रोजगार की समस्या से भी निजात मिलेगी, इसलिए राजनीति में भी आयु सीमा को निर्धारित करना होगा। जो होना आज की व्यवस्था में बहुत दूर की कड़ी लगती है।