ज़िन्दगी
याद करो जब बच्चे थे,
मन के हम कितने सच्चे थे।
नादानी खूब सुहाती थी,
पर बेईमानी में कच्चे थे।।
खूब धूम धड़ाका होता था,
खूब चोरी-वोरी होती थी।
पकड़े जाने पर मार पड़े,
खूब कान मरोड़ी होती थी।।
शैतानी में बादशाहत थी,
जहाँ पहुँचे वहाँ कयामत थी।
बच निकलने में पारंगत थे,
नौ दो ग्यारह की कहावत थी।।
धीरे-धीरे हम यूं बड़े हुए,
अपने पैरों पर खड़े हुए।
मन में चाहत आगे बढ़ने की,
कामयाबी के पीछे पड़े हुए।।
मन उलझा दुनियादारी में,
हुआ इजाफा समझदारी में।
सीखे चाल फरेबी सबकुछ,
रिश्तों की कालाबाजारी में।।
मन भटका प्यार मुहब्बत में,
प्रियतम के संग की चाहत में।
फिर आयी सर पे जिम्मेदारी,
अब जीने की कोशिश राहत में।।
अब भूल गयी सारी मस्ती,
पता चलीं चीजें मँहगी सस्ती।
ये जीवन कितना संघर्षमयी,
है कितनी काली दिल की बस्ती।।
बच्चों की जिद कुछ पाने की,
पापा मम्मी की उन्हें दिलाने की।
कुछ मजा और कुछ जिम्मेदारी,
जिद रुठने और मनाने की।।
लगने लगा कि सबकुछ पैसा है,
बस मिल जाए बेफिक्र कैसा है।
पैसे से ही सबकुछ है साध्य,
बिन पैसे के जीवन कैसा है ।।
अपनों की दुःख में पहचान हुई,
रिश्तेदारी सारी अंजान हुई।
पर कुछ थे अपने जो पास रहे,
जिनसे ज़िन्दगी मेहरबान हुई।।
फिर उम्र का अंतिम पड़ाव मिला,
सारी मोहमाया से भटकाव मिला।
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा मन में,
अब प्रभु की शरण में छाँव मिला।।
— ओम प्रकाश पाण्डेय सोऽहं