ग़ज़ल
मुश्किलें कुछ इस तरह की थी,सखे !
दुश्मनों से दोस्ती भी की , सखे !
तपके सूरज ढल गया जो शाम को,
चाँद को ले आ गई रजनी , सखे !
जिंदगी मय की तरह पीता रहा ,
मैं ही प्याला, मैं ही था साकी, सखे !
जाति,मजहब,पंथ,मत सब झूठ हैं,
सत्य है बस भूख और रोटी ,सखे !
आँसुओ को मोल मिट्टी का हुआ ,
बेवजह मत बनो,जज्बाती ,सखे !
जिंदगी का क्या भरोसा ?,कुछ नही,
कौन किसका हैं यहाँ साथी ,सखे ?
— डा. दिवाकर दत्त त्रिपाठी