अन्जाना भय
रोज मरती है ख्वाहिशें
अल्हड़ नादान बचपन की
एक अजीब सा डर
पीछा करती कुछ निगाहें
अनहोनी का भय
सहम जाती हूँ
आती नहीं तुम जब तक
आंशकिंत रहती है
ममता की छांव भी
हर बार बाहर निकलने से पहले
हजार नसीहतें
थक सी गईं हूँ
कुछ अपनों से भी
हर गली के किनारे खडे़
कुछ मनचली निगाहें से भी
सीखा दे गर आत्मा को कोई
आत्मबल का कोई नया अहसास
फिर कोई अल्हड़ नवयौवना
जी सके बिना रोक टोक
कुछ पल सुकुन के
अल्पना