ग़ज़ल
दर्द से जिसका राब्ता न हुआ
ज़ीस्त का उसको तज़रिबा न हुआ
हाल-ए-दिल वो भी कर सके न बयाँ
और मेरा भी हौसला न हुआ
आरज़ू थी बहुत, मनाऊँ उसे
उफ़! मगर वो कभी ख़फ़ा न हुआ
तब तलक ख़ुद से मिल नहीं पाया
जब तलक ख़ुद से गुमशुदा न हुआ
सिर्फ़ इक पल की थी वो क़ैद-ए-नज़र
जाने क्यों उम्र – भर रिहा न हुआ
मुझसे छूटे नहीं ख़ुलूस -ओ- वफ़ा
आदमी मैं कभी बड़ा न हुआ
अपनी ख़ुशबू ख़ला में छोड़ के “जय”
दूर होकर भी वो जुदा न हुआ
— जयनित कुमार मेहता