भारत के सपूतों की ललकार !
हां पाला है सांपों को मैंने, दंश भी मैंने झैले हैं।
मेरी ही छाती पर हरदम क्यों दुश्मन के मैले हैं।
जिनके 56 देश बसे हैं, वो मेरे घर क्यों आते हैं?
आकर मेरी धरती पर क्यों अपनी नाक कटाते हैं?
देश को असहिष्णु कहने वाले, क्यों अपने घर ना जाते हैं?
अब में भगवा आतंकी हूं देश की खातिर मारूंगा।
देश में पलते गद्दारों को रोज-रोज ललकारूंगा।
बहुत खिलाया कुत्तों को अब, गोली इनको दे मारुं।
मां भारती की छाती पर पलते जयचंदों को दुतकारूं।
ये पग-पग धरती मेरी है, मैं लहू से इसको सींचूंगा।
इस धरती पर पलते जयचंदों की जुबा को भी अब खींचूंगा।
— डी. एस. पाल (लेखक)