वेद एवं वैदिक साहित्य का महत्व
ओ३म्
वेद एक शब्द है। यह संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका अर्थ ज्ञान व जानना होता है। संसार में वेद नाम से चार ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं जिनके नाम हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद। हम देखते हैं कि संसार में सभी पुस्तकों के एक या एक से अधिक लेखक व संकलनकर्ता होते हैं। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि इन चार वेदों के लेखक व संकलनकर्ता कौन हैं? सामान्यतः वेदों के विषय में कुछ भी न जानने वालों स्वदेशी व विदेशी विद्वानों द्वारा पक्षपातपूर्वक यह कह दिया जाता है कि ऋषियों ने वेदों की रचना की है। इसका अर्थ होता कि कुछ ऋषियों ने वेदों का संकलन किया है। यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि वेद संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। वेदों का यदि किसी एक या अधिक ऋषियों ने लेखन व संकलन किया है तो प्रश्न होता है कि उन ऋषियों को वेदों में निहित ज्ञान की प्राप्ति कहा से हुई होगी? उनको वेदों के ज्ञान की प्राप्ति का स्रोत वैसे तो किसी को ज्ञात नहीं है, यदि मान भी लें तो फिर वही प्रश्न उपस्थित होता है कि जिन स्रोतों से ऋषियों को ज्ञान मिला, यदि वह मनुष्य व ऋषि थे तो उन्होंने चार वेदों का ज्ञान कब, कहां व किससे प्राप्त किया था? इन प्रश्नों के उत्तर संसार में किसी को पता नहीं है। अतः इन प्रश्नों के उत्तर प्राचीन वैदिक साहित्य ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति आदि जो सृष्टि के आरम्भ काल में ही रचे गये अर्थात् वेदों की उत्पत्ति के बाद ऋषियों ने संकलित किये व रचे, उनसे पता करना होगा और वही जानकारी इस विषय की प्रामाणिक जानकारी हो सकती है। वेदों के बाद जिस ग्रन्थ की रचना हुई उनका नाम ब्राह्मण ग्रन्थ है। ब्राह्मण ग्रन्थों में चार वेदों के चार ब्राह्मण है जिनमें यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण कहलाता है। इसमें लिखा है ‘अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते वायोर्यजुवेदः सूर्यातसामवेदः।।’ इसका हिन्दी भाषा में अर्थ है कि प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा ऋषियों की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। मनुस्मृति भी सृष्टि की आदि उत्पन्न हुई। इसमें लिखा है कि परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग् यजुः साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया। मनुस्मृति में इस आशय का श्लोक वा प्रमाण है ‘‘अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्।” इन प्रमाणों से पुष्टि हो जाती है कि इस सृष्टि के रचयिता परमात्मा ने आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान कराया और इन चार ऋषियों ने इन चारों वेदों का ज्ञान ब्रह्मा ऋषि को कराया। इससे चारों वेद ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ काल में दिया गया ज्ञान सिद्ध हो जाता है।
वेद परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं इसकी साक्षी वेदों के अनेक मंत्र देते हैं। अथर्ववेद का 10/23/4/20 मन्त्र निम्न हैः
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
समानि यस्य लोमान्यथर्वांगिरसो मुखं स्कम्भन्तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।।
यजुर्वेद 40/8 मन्त्र का एक भाग है ‘स्वयम्भर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभयः समाभय।।’
इन मंत्रों में कहा गया है कि जिस परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद प्रकाशित हुए हैं वह कौन सा देव है? इसका उत्तर दिया है कि जो सब को उत्पन्न करके धारण कर रहा है वह परमात्मा है। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है।
उपर्युक्त आधार पर यह पूर्णतः सिद्ध हो जाता है कि वेद परमात्मा प्रदत्त ज्ञान है। परमात्मा से इतर वेद ज्ञान की प्राप्ति का स्रोत व साधन हो भी नहीं सकता। सृष्टि के आरम्भ में वेदों का प्रकाश होने पर यही ज्ञान सूर्य के प्रकाश की भांति सारे संसार में फैला और महाभारत काल के बाद यथावत् इसका प्रकाश व प्रचार न होने संसार में अज्ञान फैल गया क्योंकि संसार का नियम है कि विद्वान का पुत्र तभी विद्वान हो सकता है कि जब वह पुरूषार्थ व तप पूर्वक अध्ययन करता है। यदि नहीं करता तो वह अज्ञानी रह जाता है। यहां भी ऐसा ही हुआ कि महाभारत काल के बाद ऋषियों वा वेद के प्रचारकों की परम्परा टूट गई जिससे अज्ञान फैल गया।
वेदों का सबसे पहला महत्व तो यही है कि यह सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न ज्ञान है अतः इसकी प्रत्येक बात, शब्द व वाक्य में निहित ज्ञान सत्य का दिग्दर्शन कराता है। इससे सभी भ्रमों का निवारण होता है। संसार के किसी अन्य ग्रन्थ में यह विशेषता नहीं है। वेद के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रन्थ पूरी तरह निभ्र्रान्त भी नहीं है। यह भी जान लेते हैं कि मनुष्य के लिए संसार में ज्ञान से बढ़कर कुछ भी श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण नहीं है। अन्य सभी पदार्थ, धन व वैभव ज्ञान की दृष्टि से तुच्छ हैं। इसी का बोध कराने के लिए ईश्वर ने गायत्री मन्त्र में मनुष्यों को शिक्षा दी है कि तुम मुझसे अर्थात् ईश्वर से ज्ञान की प्रार्थना करो। ज्ञान मिल जाने से मनुष्य सभी पदार्थों को प्राप्त कर सकता है व निभ्र्रान्त हो सकता है।
मनुष्य के सामने यह समस्या भी है कि वह संसार में मनुष्य जन्म के समय कहां से आया है और कालान्तर में मृत्यु होने पर कहां चला जाता है। उसका मनुष्य जन्म लेने का कारण क्या है और उसके मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य क्या हैं? मनुष्य जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके पास क्या क्या साधन हैं जिसका उपयोग कर वह लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। वेदों व वैदिक साहित्य यथा ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषद, मनुस्मृति, दर्शन आदि में मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य ‘धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष’ की प्राप्ति को बताया गया है। ईश्वर का साक्षात्कार ही जीवन का लक्ष्य है जिसके प्राप्त कर लेने पर मोक्ष आदि की प्राप्ति मनुष्य अर्थात् स्त्री व पुरुषों को होती है। यह भी चर्चा कर लेते हैं कि मुक्ति के लिए मनुष्य को अपना आचरण कैसा बनाना होता है। वेदों व वेदानुसार शास्त्रों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने कहा है कि परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, (वैदिक विधि से) ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने, सब से उत्तम साधनों का आचरण करने और जो कुछ करें वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करें। इत्यादि साधनों से मुक्ति होती है। इनसे विपरीत ईश्वर की आज्ञा भंग करने आदि कामों से जन्म व मरण रूपी बन्धन होता है। वेदों का यह ज्ञान संसार में वैदिक साहित्य से इतर किसी धर्म व मजहब की पुस्तक में नहीं मिलता और न उनके आचार्यों में इस पर प्रकाश ही डाला है।
वेदों का अध्ययन करने से ईश्वर, जीव व सृष्टि का सत्य स्वरूप व ईश्वर की उपासना की सत्य विधि का ज्ञान होता है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार और सभी दुःखों की निवृत्ति होती है। इससे न केवल भौतिक सुख अपितु उससे भी कहीं अधिक ईश्वरीय आनन्द जिसे परमानन्द भी कह सकते हैं, ईश्वर के उपासक को प्राप्त होता है। मनुष्य के समस्त कर्तव्यों का ज्ञान भी वेदों से ही होता है। ईश्वर, माता-पिता, आचार्य व अन्य संबंधियों के प्रति व साथ ही पंच महायज्ञों जिसमें से एक देवयज्ञ वा अग्निहोत्र है, उन सबका ज्ञान भी वेद एवं वैदिक साहित्य से होता है। वेद का महत्व यह भी कि यह साम्प्रदायिक विचारों से सर्वथा मुक्त है और संसार के सभी लोगों को एक सर्वव्यापक ईश्वर का पुत्र व पुत्री बताते हैं। चारों वेद अहिंसा की शिक्षा देते हैं और मांसाहार का हर प्रकार से निषेध करते व उसे दण्डनीय घोषित करते हैं। वेद प्राणी मात्र के प्रति दया व प्रेम की शिक्षा देते हैं। वेदों में संसार की सभी विद्यायें बीज रूप में है। महाभारत काल तक भारत सभी विद्याओं में अग्रणीय था। भाषा की बात करें तो संसार की श्रेष्ठतम् संस्कृत भाषा का प्रयोग भारत के वासी ही करते थे। पदार्थ विद्या में भी इस देश विद्वान सिद्ध व विज्ञ थे। वायुयान व जलयान सभी यहां थे। स्वर्ण का भण्डार था। सभी स्वर्णाभूषण धारण करते थे। महाभारत व रामायण के सूक्ष्म वर्णन करने पर इन तथ्यों का साक्षात् किया जा सकता है। ऐसे ही अनेक तथ्यों का उल्लेख सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और ऋषि दयानन्द के पूना प्रवचनों में अनेक स्थानों पर हुआ है।
वेदों की परम्परा को 1,96,08,53,117 वर्ष हुए हैं जबकि पारसी, बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई व इस्लाम को मात्र 1500 से लेकर 4000 वर्ष ही हुए हैं। वेदों का महत्व इससे भी विदित हो जाता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से इसका महत्व सूर्य व समुद्र के समान विशाल, महान व अनन्त ईश्वर के समान अनन्त है। हमने अपनी अल्प बुद्धि से कुछ थोड़ी सी बातें इस लेख के आकार की दृष्टि करने का प्रयास किया है। आर्य विद्वानों की इस विषय की पुस्तकों में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। समस्त प्राचीन वैदिक साहित्य, सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों से भी वेदेां का महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है जो कि संसार के समस्त ग्रन्थों में सर्वाधिक है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य