लघुकथा

अनजाना डर

अनजाना डर
आज बिटिया को बैंकिंग की परीक्षा देने नवी मुंबई जाना था। सुबह-सुबह उठकर तैयार होकर जाने लगी तब अचानक याद आया आज तो लोकल ट्रेनों का मेगा ब्लॉक है
आज तो मेगा ब्लॉक है कैसे जाओगी ?
मम्मी मेगा ब्लॉक 11:00 बजे के बाद है अभी तो निकल जाऊंगी लौटते समय हो सकता है थोड़ी परेशानी हो
इतने में पतिदेव जो कि ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहे थे बोले
एक काम करना नवी मुंबई से ऐ सी बस भी चलती है तुम बस पकड़ कर आ जाना लोकल ट्रेन में चक्कर मे मत पड़ना
बस का नाम सुनते ही अनजाना डर मन में बैठ गया। आंखों के आगे दिल्ली की वह घटना घूम गयी और कांप गयी रूह तक
क्योंकि वह उस समय निकल रही थी तो मैंने कुछ बोलना सही नही समझा।
पतिदेव काम पर गए बेटी परीक्षा देने। पर मन में उथल-पुथल चलती रही आखिरकार जब मन न माना तो उसे फोन किया
बस में देखकर चढ़ना अगर थोड़ी भीड़ हो तभी चढ़ना वरना टैक्सी पकड़ कर आ जाना
वह हंसने लगी आपको पता है टेक्सी के कितने पैसे लगेंगे? मैं अपने जेब खर्च से तो नही दूंगी..आप दोगे ?
हाँ मुझसे ले लेना …पर तुम बस में मत चढ़ना टैक्सी पकड़ कर आ जाना
अपनी बिटिया से उस डर को कह न पायी शायद वो डर सांझा करने में भी डर लग रहा था ।
उसके घर लौट आने तक यह सोचने लगी मैं अनजाने डर की आशंका से ही मैं इतनी व्यथित हो रही हूं तो उस माँ पर उस बच्ची पर क्या बीती होगी जिन्होंने इस दुख को सहा ।

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]

One thought on “अनजाना डर

  • राजकुमार कांदु

    बहुत सुंदर !

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