इंसानियत – एक धर्म ( भाग – उंतालिसवां )
मुनीर ने अंदर शौचालय का दृश्य देखकर अपना सिर धुन लिया । अंदर उस छोटी सी जगह में भी पांच आदमी घुसे हुए थे । अभी मुनीर ने कुछ कहा भी नहीं था कि अंदर से एक दुबले पतले मरियल से अधेड़ आदमी ने बड़े कड़क लहजे में कहा ” ऐ भाई ! क्यों परेशान कर रहा है ? दिख नहीं रहा जरा भी जगह नहीं है । जा ! और कहीं जुगाड़ कर ले ! ”
मुनीर का जी तो किया कि उसे कस कर एक तमाचा रसीद कर दे लेकिन खुद को संयत रखते हुए उसने आवाज में मिठास पैदा करते हुए बोला ” भाईसाहब ! आप गलत समझ रहे हैं । दरअसल मुझे लघुशंका महसूस हो रही है इसलिए …….”
अभी उसका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि अंदर बैठे सभी ठहाके लगा कर हंस पड़े ।
” अरे मिलन ! देखा ! ई का कह रहा है ? लघुशंका ! शंका का होता है ई तो हमको मालूम है लेकिन ई लघुशंका ? अरे भैया ! पगड़ी वगडी बांधे हो । देहाती मनई लग रहे हो और बोली बोल रहे हो विलयती ? ” एक दुसरे दबंग से दिख रहे देहाती ने उसका उपहास उड़ाया था । उसके साथियों ने भी जम कर उसकी बात पर ठहाके लगाए थे । मुनीर के आसपास खड़े दुसरे लोग भी हंसने लगे थे ।
तभी मुनीर के बगल में खड़े एक संभ्रांत से दिख रहे युवक ने उनका प्रतिरोध किया ” अरे भाई ! इन भाईसाहब को पेशाब लगी है । उनकी मदद करने की बजाय तुम लोग हंसी कर रहे हो ? ठहाके लगा रहे हो ? ” उसकी बात उन देहातियों को नागवार गुजरी । उनमें से एक दूसरा गुर्राया ” अबे ओ ! दालभात में मुसलचंद ! तुझे कौनो तकलीफ है का ? काहें हम लोगन के मुंह लग रहा है ? अरे सफर का मामला है । थोड़ा सा हंसी मजाक हुई गवा तो इसमें तेरा का बिगड़ गवा जो इतना खिसिया रहा है ? ”
लेकिन वह युवक भी कहाँ माननेवाला था ? लगता था वह भी मजाक के मूड में आ चुका था । हंसते हुए ही बोल ” वो सब तक तो ठीक है ,अब सब लोग थोड़ी देर के लिए बाहर आ जाओ और इन भाईसाहब को हल्का हो लेने दो । ”
लेकिन पहलेवाले दबंग से दिखाई दे रहे देहाती को उसकी हंसी नागवार गुजर गयी । कड़े रौबदार आवाज में बोला ” अबे पिद्दी के शोरबे ! अब तेरी इतनी औकात हो गयी कि तू हमें हुकुम करेगा ? तू है कौन बे ? ”
वह युवक भी कम नहीं था । अपने कमीज की आस्तीन चढ़ाते हुए उस युवक ने एक भद्दी सी गाली उस रौबदार आवाज के मालिक को दिया और फिर अपने हाथों की उंगलियां मुंह में डालकर जोर की सीटी मारी ।
उसके सीटी मारने की देर थी कि डिब्बे के गलियारे में फंसी जनता को रौंदते हुए कई युवा पल भर में ही वहां जमा हो गए । उस भीड़ में जहां पैर रखने की जगह के लिए भी मुनीर काफी देर से तरस रहा था उन गुंडों जैसी शक्ल सूरत वाले युवाओं को देखते ही वहां काबिज सवारियां पता नहीं कहाँ गायब हो गईं । अब उस दुबले पतले युवक में गजब का जोश दिखाई दे रहा था । इससे पहले कि उन देहातियों की तरफ से कोई जवाब आता उसने उन पांचों में से एक अधेड़ का गिरेबान पकड़ कर उसे बाहर खींच लिया । इसी के साथ युवक के साथियों व उन देहातियों के बीच खूंखार लड़ाई शुरू हो गयी । मुनीर ने बीचबचाव करने का काफी प्रयास किया लेकिन अब यह लड़ाई उन दोनों समूहों की नाक का सवाल बन गया था ।
उन दोनों समूहों के बीच कहीं उसकी भी धुलाई न हो जाये यही सोचकर मुनीर धीरे से दरवाजे की तरफ खिसक गया जहां अब जगह खाली हो चुकी थी । तेज शोर और गाली गलौज के बीच दोनों समूहों में भयानक जंग छिड़ चुकी थी और संयोगवश यही वो समय था जब ट्रेन धीरे धीरे रुकने लगी थी । मुनीर ने दरवाजे से झांक कर देखा । ट्रेन किसी वीराने में रुकी हुई थी । दूर दूर तक कहीं किसी बस्ती का कोई नामोनिशान तक नहीं था । ट्रेन रुकते ही दूसरे डिब्बे से भी दरवाजे पर लटके लोग नीचे उतर गए । उनकी देखादेखी मुनीर भी नीचे उतर गया और यह सुनहरा अवसर शायद उसे खुदा की मेहरबानी से ही मिला है वह पटरी से दूर खेतों में उतर गया । अभी वह लघुशंका से फारिग हुआ ही था कि ट्रेन के सीटी की आवाज सुनकर ट्रेन की तरफ दौड़ पड़ा । इससे पहले कि वह ट्रेन पकड़ पाता ट्रेन धीरे धीरे सरकने लगी । मुनीर थोड़ा घबरा अवश्य गया था लेकिन उसने हौसला बनाये रखा और तेजी से दौड़ते हुए वह ट्रेन के एक दुसरे डिब्बे में चढ़ने में कामयाब हो ही गया ।
कुछ देर तक सीढ़ियों पर खड़े रहने के बाद वह धीरे धीरे डिब्बे में प्रवेश पा गया । इस डिब्बे में अपेक्षाकृत भीड़ बहुत कम थी । और डिब्बे में पहुंचकर अंदर का दृश्य देखते ही उसका हृदय जोरों से धड़कने लगा । डर के साथ ही उसे आश्चर्य भी हुआ यह देखकर कि इस भीड़भाड़ में भयानक गर्मी में भी काले कोट पहने एक टीसी लोगों के टिकट चेक कर रहा था । अभी वह उससे काफी दूर डिब्बे में दूसरे छोर पर था और मुनीर की तरफ ही बढ़ रहा था । ट्रेन अब अपनी सामान्य गति से दौड़ने लगी थी । मुनीर ने अपने पैंट की जेब में हाथ डाला और कुछ मुड़े तुड़े हुए नोटों को अपनी उंगलियों से छुकर महसूस किया । नोटों की मौजूदगी के अहसास ने ही उसके हॄदय की धड़कनों पर काबू पा लिया था और अब उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा था । टीसी बड़ी तेजी से टिकट चेक करते हुए मुनीर के और करीब आ गया था । मुनीर सोचने लगा इससे पहले कि वह आकर उससे टिकट मांगे उसे कुछ करना होगा । कुछ ऐसा करना होगा कि वह बिना टिकट पकड़े जाने से बच जाए । कुछ ही देर में उसके शातिर दिमाग ने एक योजना बना ली और उस पर अमल करने के लिए खुद को तैयार करने लगा कि तभी उसे टी सी एक आदमी को धमकी देता हुआ नजर आया । उसे लगा जैसे वह टीसी उस यात्री को नहीं वरन उसे ही धमका रहा है । अपनी योजना के मुताबिक वह भीड़ में जगह बनाते हुए टीसी की तरफ बढ़ने लगा । अभी वह उसके करीब भी नहीं पहुंचा था कि उस दीन हीन से दिखने वाले यात्री का गिरेबान पकड़े वह टीसी डिब्बे में दुसरे दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा । किसी कसाई के पीछे जिस तरह बकरा घिसटते हुए चलता है और बचने का प्रयास करता है उसी तरह वह यात्री भरसक उस टीसी के साथ जाने से बचने की कोशिश करता हुआ उसका मनुहार किये जा रहा था । ” साहब ! मैं सही कह रहा हूँ ! मैंने टिकट खरीदा था लेकिन मेरा जेब ही किसी ने काट लिया है । टिकट और पैसे मेरे पर्स में ही थे जो किसी जेबकतरे ने उड़ा लिया है । देखो मेरी जेब कटी हुई है । बच्चों की कसम साहब ! मेरा यकीन करो ! ”
दरवाजे के नजदीक आकर टीसी धीरे से फुसफुसाया ” ठीक है ! अब बंद कर यह नौटंकी और कुछ चढ़ावा चढ़ा तब यह देवता तेरे उपर प्रसन्न होगा । जल्दी कर स्टेशन आनेवाला है । स्टेशन आ गया तो हिस्सेदार बढ़ जाएंगे और तेरा नुकसान हो जाएगा । समझा ? ”
रोने लगा वह यात्री ” कहाँ से लाऊं साहब मैं चढ़ावा आप के लिए ? जब मेरी जेब ही कट गई है । अब तो दो ही रास्ते हैं , या तो आप मुझे छोड़ दीजिए बिना कुछ लिए आपकी बड़ी मेहरबानी होगी या फिर मुझे ले चलिए और डाल दीजिए जेल में । वहां कम से कम पेट तो भरेगा । ”
प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, उपन्यास की यह कड़ी भी बहुत सुंदर, रोचक व सटीक बन पड़ी है. कहानी की एक-एक बारीकी पर नज़र रखते हुए भाषा-वैविध्य से इस कड़ी में रोचकता आ गई है. यथार्थ के दर्शन तो आपकी रचनाओं की विशेषता है ही. इंसानियत के प्रति जागरुक करने वाली, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.
आदरणीय बहनजी ! बेहद सुंदर ,सार्थक प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन करने के लिए आपका धन्यवाद । ट्रेन यात्रियों की समस्या का भी थोड़ा जायजा ले लिया जाए सो कहानी में चरित्र रेलयात्रा करने लगता है और फिर सामने आती हैं इस यात्रा के दौरान होनेवाली मुश्किलें , परेशानियां ।
राजकुमार भाई , बहुत दिलचस्प काण्ड . ट्रेन के डिब्बे का सीन मुझे फगवाडे ले गिया और तौयेलेट का सीन तो लगा मैं खुद वहां उस डिब्बे में ही हूँ .टीसी का नमूना, इस का मतलब अभी भी उसी तरह है, कोई बदलाव नहीं आया .
आदरणीय भाईसाहब ! टॉयलेट का सीन कोई अजूबा नहीं बल्कि कुछ विशेष मौकों पर जनरल डिब्बों में यह आम है । आपने सही अनुमान लगाया है कि अब भी शायद पहले जैसी ही हालत है । जनसंख्या व्रद्धि का एक दुष्परिणाम यह भी है । उसके अनुपात में सरकार सुविधाएं नहीं बढ़ा पा रही है और स्थिति पहले से भी बदतर होती जा रही है । कमोबेश सभी क्षेत्रों में यही हालत है । बेहद सुंदर प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद ।
बढ़िया क़िस्त ! यह एक नयी कहानी शुरू हो गयी.
आदरणीय भाईसाहब ! बहती गंगा में हाथ धोने जैसा ही करने का प्रयास है । ट्रेनों के सामान्य डिब्बों की स्थिति पर कुछ ध्यान देने की जरूरत है । सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहित करने के लिए धन्यवाद ।